Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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आचारशास्त्र
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जीवन प्रिय है उसी प्रकार दूसरों को भी अपना जीवन प्रिय है । इसलिए निर्ग्रन्थ मुनि प्राणवध का त्याग करते हैं । असावधानीपूर्वक बैठने, उटने, चलने, सोने, खाने पीने, बोलने से पापकर्म बंधता है । इसलिए भिक्षु को समस्त क्रिया सावधानीपूर्वक करनी चाहिए । जो जीव और अजीव को जानता है वही वस्तुतः संयम को जानता है। जीव और अजीव को जानने पर ही संयमी श्रमण जीवों की रक्षा कर सकता है इसीलिए कहा गया है कि पहले ज्ञान है, फिर दया । जो संयमी ज्ञानपूर्वक दया का आचरण करता है वही वस्तुतः दयाधर्म का पालन करता है । अज्ञानी न पुण्य-पाप को समझ सकता है, न धर्म-अधर्म को जान सकता है, न हिंसा-अहिंसा का विवेक कर सकता है ।
प्राणातिपात विरमण की सुरक्षा के लिए निम्नोक्त पाँच भावनाएं हैं : १. ईर्याविषयक समिति -- गमनागमनसम्बन्धी सावधानी, २ मन की अपापकता - मानसिक विकाररहितता, ३. वचन की आपापकता - वाणी की विशुद्धता, ४ भाण्डोपकरणविषयक समिति - पात्रादि उपकरणसम्बन्धी सावधानी, ५. भक्तपानविषयक आलोकिकता - खान-पानसम्बन्धी सचेतता । २ ये एवं इसी प्रकार की अन्य प्रशस्त भावनाएँ अहिंसावत का सुदृढ़ एवं सुरक्षित करती हैं।
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जिस प्रकार सर्वविरत श्रमण जीवकाय की हिंसा का सर्वथा त्याग करता है उसी प्रकार वह मृषावाद से भी सर्वथा विरत होता है । असत्य हिंसादि दोषों का जनक है, यह समझ कर वह कदापि असत्य वचन का प्रयोग नहीं करता। वह हमेशा
१. दशर्वकालिक, ४.१-१५.
२. आचारांग, २.३.
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