Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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जैन धर्म-दर्शन
निर्दोष, अकर्कश, असंदिग्ध वाणी बोलता है। क्रोध, मान, माया व लोभमूलक वचन तथा जान-बूझकर अथवा अज्ञानवश प्रयोग किये जाने वाले कठोर वचन अनार्य वचन हैं। ये दोषयुक्त होने के कारण त्याज्य हैं । श्रमण को संदिग्ध अथवा अनिश्चित दशा मैं निश्चय वाणी का प्रयोग नहीं करना चाहिए। सम्यक्तया निश्चय होने पर ही निश्चय वाणी बोलनी चाहिए। सदोष, कठोर, जीवों को कष्ट पहुंचाने वाली भाषा भिक्षु न बोले । वह सत्य, मृदु, निर्दोष, अभूतोपघातिनी भाषा काम में ले | सत्य होने पर भी अवज्ञासूचक शब्दों का प्रयोग न करे किन्तु सम्मानसूचक शब्द प्रयोग में ले ।" संक्षेप में कहा जाय तो सर्वविरत भिक्षु को क्रोधादि कषायों का परित्याग कर, समभाव धारण कर विचार व विवेकपूर्वक संयमित सत्य भाषा का प्रयोग करना चाहिए ।
सत्यव्रत की पाँच भावनाएं ये हैं : १. वाणीविवेक, २. क्रोधत्याग, ३. लोभत्याग, ४. भयत्याग, ५. हास्यत्याग । २ वाणीविवेक अर्थात् सोच-समझकर भाषा का प्रयोग करना ।
त्याग अर्थात् गुस्सा न करना । लोभत्याग अर्थात् लालच में न फंसना । भयत्याग अर्थात् निर्भीक रहना । हास्यत्याग अर्थात् हंसी-मजाक न करना । इन व इसी प्रकार की अन्य प्रशस्त भावनाओं से सत्यव्रत की रक्षा होती है ।
अदत्तादान से सर्वथा निवृत्ति लेने वाला श्रमण कोई भी बिना दी हुई वस्तु ग्रहण नहीं करता । वह बिना अनुमति के एक तिनका उठाना भी स्तेय अर्थात् चोरी समझता है । किसी
१. दशवेकालिक, ७.१-१२.
२. आचारांग, २. ३.
३. दशवेकालिक, ६ १३.
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