Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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आचारशास्त्र
नहीं करता। वह पूर्णतया अनासक्त एवं अकिञ्चन होता है। इतना ही नहीं, वह अपने शरीर पर भी ममत्व नहीं रखता। संयमनिर्वाह के लिए वह जो कुछ भी अल्पतम उपकरण अपने पास रखता है उन पर भी उसका ममत्व नहीं होता। उनके खो जाने अथवा नष्ट हो जाने पर उसे शोक नहीं होता तथा प्राप्त होने पर हर्ष नहीं होता। वह उन्हें केवल संयमयात्रा के साधन के रूप में काम में लेता है । जिस प्रकार वह अपने शरीर का अनासक्त भाव से पालन-पोषण करता है उसी प्रकार अपने उपकरणों का भी निर्मम भाव से रक्षण करता है। ममत्व अथवा आसक्ति आन्तरिक ग्रन्थि है । जो साधक इस अन्यि का छेदन करता है वह निर्ग्रन्थ कहलाता है। सर्वविरत श्रमण इमी प्रकार का निर्ग्रन्थ होता है।
अपरिग्रहवत की पांच भावनाएं ये हैं : १. श्रोत्रेन्द्रिय के विषय शब्द के प्रति राग-द्वेषरहितता अर्थात् अनासक्त भाव, २. चक्षरिन्द्रिय के विषय रूप के प्रति अनासक्त भाव, ३. घ्राणेन्द्रिय के विषय गन्ध के प्रति अनासक्त भाव, ४. रसनेन्द्रिय के विषय रस के प्रति अनासक्त भाव, ५. स्पर्शनेन्द्रिय के विषय सर्श के प्रति अनासक्त भाव ।। रात्रिभोजन-विरमणवत:
मूलाचार के मूलगुण नामक प्रथम प्रकरण में सर्वविरत श्रमण के २८ मूल गुणों का वर्णन है : पांच महाव्रत, पांच समितियाँ, पाँच इन्द्रियों का निरोव, छः आवश्यक, लोंच, १. दशवकालिक, ६.२०. २. पाचारांग, २. १.
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