Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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आचारशास्त्र
आचार और विचार व्यक्तित्व के समान शक्तिवाले अन्योन्याश्रित दो पक्ष हैं । इन दोनों पक्षों का संतुलित विकास होने पर ही व्यक्तित्व का विशुद्ध विकास होता है । इस प्रकार के विकास को हम ज्ञान और क्रिया का संयुक्त विकास कह सकते हैं जो दुःखमुक्ति के लिए अनिवार्य है ।
आचार और विचार की अन्योन्याश्रितता को दृष्टि में रखते हुए भारतीय चिन्तकों ने धर्म व दर्शन का साथ-साथ प्रतिपादन किया | उन्होंने तत्त्वज्ञान के साथ ही आचारशास्त्र का भी निरूपण किया एवं बताया कि ज्ञानविहीन आचरण नेत्रहीन पुरुष की गति के समान है जबकि आचरणरहित ज्ञान पंगु पुरुष की स्थिति के सदृश है । जिस प्रकार अभीष्ट स्थान पर पहुंचने के लिए निर्दोष आँखें व पैर दोनों आवश्यक हैं उसी प्रकार आध्यात्मिक सिद्धि के लिए दोषरहित ज्ञान व चारित्र दोनों अनिवार्य हैं ।
भारतीय परम्पराओं में आचार व विचार दोनों को समान स्थान दिया गया है । उदाहरण के लिए मीमांसा परम्परा का एक पक्ष पूर्वमीमांसा आचारप्रधान है जबकि दूसरा पक्ष उत्तरमीमांसा (वेदान्त ) विचारप्रधान है । सांख्य और योग क्रमशः विचार और आचार का प्रतिपादन करने वाले एक ही
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