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कर्मसिद्धान्त
जन्म की सहज व्यवस्था की गई है। ___ कर्मबन्ध का कारण कषाय अर्थात् राग-द्वेषजन्य प्रवृत्ति है। इससे विपरीत प्रवृत्ति कर्ममुक्ति का कारण बनती है । कर्म मुक्ति के लिए दो प्रकार की क्रियाएं आवश्यक हैं : नवीन कर्म के उपार्जन का निरोध एवं पूर्वोगाजित कर्म का क्षय । प्रथम प्रकार की क्रिया का नाम संवर तथा द्वितीय प्रकार की क्रिया का नाम निर्जरा है। ये दोनों क्रियाएं क्रमशः आस्रव तथा बन्ध से विपरीत हैं । इन दोनों की पूर्णता से आत्मा की जो स्थिति होती है अर्थात् आत्मा जिस अवस्था को प्राप्त होती है उसे मोक्ष कहते हैं। यही कर्ममुक्ति है।
नवीन कर्मों के उपार्जन का निरोध अर्थात् संवर निम्नोक्त कारणों से होता है : गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय, चारित्र व तपस्या। सम्यक् योगनिग्रह अर्थात् मन, वचन व तन की प्रवृत्ति का सुष्ठु नियन्त्रण गुप्ति है ! सम्यक् चलना, बोलना, खाना, लेना-देना आदि समिति कहलाता है। उत्तम प्रकार की क्षमा, मृदुता, ऋजुता, शुद्धता आदि धम के अन्तर्गत हैं । अनुप्रेक्षा में अनित्यत्व, अशरणत्व, एकत्व आदि भावनाओं का समावेश होता है । क्षुधा, पिपासा, सर्दी, गर्मी आदि कष्टों को सहन करना परीषहजय है। चारित्र सामायिक आदि भंद से पाँच प्रकार का है। तप बाह्य भी होता है व आभ्यन्तर भी। अनशन आदि बाह्य तप हैं, प्रायश्चित्त आदि आभ्यन्तर तप कहलाते हैं। तप से संवर के साथ-साथ निर्जरा भी होती है । संवर व निर्जरा का पर्यवसान मोक्ष में-कर्ममुक्ति में होता है।
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