Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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धन धर्म-दर्शन
प्रकार कर्मों को तोड़कर तुम कर्मरहित अर्थात् मुक्त हो जाओगे ।' आचारांग के इन व इस तरह के अन्य उल्लेखों से स्पष्ट प्रकट होता है कि कर्मवाद के मूलभूत सिद्धान्तों का इस अंग - सूत्र में संक्षिप्त निरूपण हुआ है । कर्म के आस्रव और बन्ध तथा संवर और निर्जरा के साथ ही साम्परायिक एवं ईर्ष्यापथिकरूप तथा घाती एवं आघातीरून भेदों का विचार किया गया है । कर्म को ही संसार का कारण माना गया है तथा कर्म के अभाव को मोक्ष कहा गया है।
स्थानांग और समवायांग में कर्मवाद पर कुछ अधिक विचार हुआ है। कर्म के आस्रव के हेतुओं का प्रतिपादन करते हुए कहा गया है कि आस्रवद्वार पाँच हैं : १. मिथ्यात्व ( मिथ्या श्रद्धा ), २. अविरति ( व्रताभाव ), ३. प्रमाद, ४. कषाय ( क्रोध- मान-माया - लोभ ), ५. योग ( मन-वचन-काय की प्रवृत्ति ) | पुण्य अर्थात् शुभ कर्मबन्ध के नौ कारण हैं : १. अन्नदान, २. पानदान, ३. वस्त्रदान, ४. गृहदान, ५. शयनदान, ६. मन: प्रसाद ( गुणी जनों को देखकर वित्त में प्रसन्नता होना ), ७. वचनप्रशंसा ( गुणी जनों की वाणी से सराहना करना), ८. काय सेवा ( शरीर से शुश्रूषा करना ), ६. नमस्कार । पाप अर्थात् अशुभ कर्म बन्ध के भी नौ कारण हैं : १. हिंसा, २. झूठ, ३. चोरी, ४. मैथुन, ५. परिग्रह, ६. क्रोध, ७. मान, ८. माया, ६. लोभ 13 कर्मबन्ध चार प्रकार का है : १. प्रकृति
बन्ध २. स्थितिबन्ध, ३. अनुभावबन्ध, ४. प्रदेशबन्ध । कर्म
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१. श्रु० १, अ० ३, उ० २. २. स्थानांग, ४१८; समवायांग, ५. ३. स्थानांग, ६७६-६७७.
४. स्थानांग, २९६; समवायांग ४, ( प्रकृति - स्वभाव, स्थिति = काल, अनुभाव = रस, प्रदेश = पुद्गल - परमाणु )
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