Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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कर्मसिद्धान्त
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है तथा गोत्र कर्म शारीरिक उच्चत्व एवं नीचत्व का शुभ शरीर सुख का कारण होता है तथा अशुभ शरीर दुःख का । इसी प्रकार उच्चत्व सुख का तथा नीचत्व दुःख का कारण है । शुभ शरीर और उच्च शरीर में तथा अशुभ शरीर और नीच शरीर में क्या अन्तर है जिसके कारण नाम और गोत्र इन दो प्रकार के कर्मों की अलग-अलग व्यवस्था करनी पड़ी ? जब नाम कर्म से सम्पूर्ण शारीरिक वैविध्य का निर्माण हो सकता है जिसमें शुभत्व, अशुभत्व, उच्चत्व, नीचत्व, सुरूपत्व, कुरूपत्व आदि समस्त कायिक सद्गुण-दुर्गुण समाविष्ट होते हैं तब गोत्र कर्म की अलग मान्यता से क्या लाभ? जैन कर्मव्यवस्था को देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि नाम कर्म का सम्बन्ध व्यक्ति के उन शारीरिक गुणों से है जो उसके अपने हैं अर्थात् जिनका किसी कुलविशेष या वंशविशेष से सम्बन्ध नहीं है, जबकि गोत्र कर्म का सम्बन्ध उसके उन शारीरिक गुणों से है जो उसके कुल या वंश से सम्बद्ध हैं तथा अपने माता-पिता के माध्यम से ही उसमें आये हैं !
माता-पिता के माध्यम से आने वाले गुणों के लिए सन्तान का कर्म उत्तरदायी कैसे हो सकता है ? जो कोई भी अच्छाई या बुराई माता-पिता के कारण किसी में उत्पन्न होती है उसके लिए वह व्यक्ति किस प्रकार उत्तरदायी हो सकता है ? इस प्रश्न का समाधान यह है कि अमुक जीव का अमुक स्थान पर अमुक रूप में उत्पन्न होना उसके अमुक प्रकार के कर्म पर ही निर्भर होता है । जीव जब अपने कर्म के अनुरूप अमुक अवस्था को प्राप्त करता है तब वह तत्कालीन परिस्थिति एवं स्वशक्ति व स्थिति के अनुसार अमुक गुणों को भी ग्रहण करता है । इनमें से कुछ गुण ऐसे होते हैं जिनका सम्बन्ध माता-पिता से अथवा
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