Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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कर्मसिद्धान्त
४७१
अमुक व्यक्ति को तब तक नीच नहीं समझा जाता जब तक कि उसके विषय में यह ज्ञात नहीं हो जाता कि वह अमुक वर्ण अथवा जाति का है। यदि वर्ण, जाति आदि से उच्च-नीच का सम्बन्ध होता तो उसकी सर्वदा एवं सर्वत्र वैसी प्रतीति होती। किन्तु बात ऐसी नहीं है। अतः यह मानना चाहिए कि उच्चनीच गोत्र का सम्बन्ध वर्ण, जाति आदि से न होकर वंश, कुल अथवा माता-पिता से है जो किसी भी वर्ण, जाति, समाज, देश, धर्म, रंग के हो सकते हैं। जैसे नाम कर्म का सम्बन्ध शरीर से है वैसे ही गोत्र कर्म भी शरीर से ही सम्बद्ध है ।
यदि गोत्र कर्म का सम्बन्ध शरीर से है तो ऐसे कौन से शारीरिक लक्षण हैं जिन्हें देखने से यह मालूम हो जाय कि अमुक व्यक्ति उच्च गोत्र का है और अमुक नीच गोत्र का ? वंशागत शारीरिक स्वस्थता, सुरूपता, संस्कारसम्पन्नता आदि उच्च गोत्र के लक्षण हैं तथा अस्वस्थता, कुरूपता, संस्कारहीनता आदि नीच गोत्र के। जिस व्यक्ति में वंशागत जैसे शारीरिक गुण अर्थात् लक्षण पाये जायंगे वह व्यक्ति उन्हीं लक्षणों के अनुरूप गोत्र वाला समझा जायगा, चाहे उसकी सामाजिक जाति कोई भी हो। जिस प्रकार शुभ नाम कर्म के उदय से शारीरिक शुभत्व तथा अशुभ नाम कर्म के उदय से शारीरिक अशुभत्व प्राप्त होता है उसी प्रकार उच्च गोत्र कर्म के उदय से शारीरिक उत्कृष्टता ( कुलीनता ) तथा नीच गोत्र कर्म के उदय से शारीरिक निकृष्टता ( कुलहीनता ) प्राप्त होती है। जैसे किसी भी वर्ग का व्यक्ति शुभ नाम कर्म के कारण शुभ शरीर वाला एवं अशुभ नाम कर्म के कारण अशुभ शरीर वाला हो सकता है वैसे ही किसी भी वर्ग का व्यक्ति उच्च गोत्र कर्म के कारण उत्कृष्ट शरीर वाला एवं नीच गोत्र कर्म के कारण
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