Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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चन धर्म-दर्शन
निकृष्ट शरीर वाला हो सकता है। नाम और गोत्र कर्मों में इतना ही अन्तर है कि नाम कर्म का सम्बन्ध व्यक्ति के निजी शारीरिक गुणों से है, जबकि गोत्र कर्म का सम्बन्ध वंशागत अर्थात् परम्परागत शारीरिक गुणों से है । जैसे व्यक्ति के निजी गुणों में अमुक सीमा तक प्रयत्न द्वारा परिवर्तन हो सकता है वैसे ही उसके परम्परागत गुणों में भी अमुक सीमा तक प्रयत्नजन्य परिवर्तन सम्भव है। ___अन्तराय कर्म की पांच उत्तरप्रकृतियाँ हैं : दानान्तराय, लाभान्त राय, भोगान्तराय, उपभोगान्त राय और वीर्यान्तराय । जिस कर्म के उदय से उपयुक्त अवसर पर दान करने का उत्साह नहीं होता वह दानान्तराय कर्म है। जिस कर्म का उदय होने पर उदार दाता की उपस्थिति में भी लाभ अर्थात प्राप्ति की भावना न हो वह लाभान्तराय कर्म है। अयवा योग्य सामग्री के रहते हुए भी अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति की भावना न होना लाभान्तराय कर्म का कार्य है। भोग की सामग्री मौजूद हो और भोग करने की इच्छा भी हो फिर भी जिस कर्म के उदय से प्राणी भोग्य पदार्थों का भोग करने में समर्थ न हो वह भोगान्तराय कर्म है। इसी प्रकार उपभोग्य वस्तुओं का उपभोग-असामर्थ्य उपभोगान्तराय कर्म का फल है। जो पदार्थ एक बार भोगे जाते हैं वे भोग्य हैं तथा जो पदार्थ बार-बार भोगे जाते हैं वे उपभोग्य हैं। अन्न, जल, फल आदि भोग्य पदार्थ हैं। वस्त्र, आभूषण, स्त्री आदि उपभोग्य पदार्थ हैं। जिस कर्म के उदय से प्राणी अपने वीर्य अर्थात् सामर्थ्य-शक्ति-बल का चाहते हुए भी उपयोग करने में समर्थ न हो उसे वीर्यान्तराय कर्म कहते हैं।
अन्तराय कर्म के विषय में प्रायः ऐसी मान्यता प्रचलित दिखाई देती है कि किसी वस्तु की प्राप्ति आदि में बाह्य विघ्न
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