Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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जैन धर्म-दर्शन
कर्म दो प्रकार के होते हैं : शुभ और अशुभ। शुभ कर्म का दूसरा नाम पुण्य है और अशुभ कर्म का दूसरा नाम पाप । इस प्रकार पुण्य एवं पाप शुभ एवं अशुभ कर्मों के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है । चूकि शुभ और अशुभ इन दोनों प्रकार के कर्मों का सम्बन्ध प्राणी के शरीर (सचेतन) से है अतः पुण्य और पाप इन दोनों का सम्बन्ध भी उसी शरीर से ही है। जब यह कहा जाता है कि अमुक व्यक्ति पुण्यवान् है तो जैन कर्मवाद की दृष्टि से इस कथन का तात्पर्य यह होता है कि उस व्यक्ति का शरीर शुभ कर्मोदययुक्त है अर्थात् उस व्यक्ति के शरीर से सम्बद्ध इन्द्रियाँ, वाणी, मन आदि एवं उनकी प्रवृत्तियां यानी मन-वचन-काय की क्रियाएं शुभ अर्थात् सुखद हैं । दूसरे शब्दों में, वह व्यक्ति सब प्रकार से अथवा सामान्य तौर से अथवा अधिकांशतः सुखी है । इसी तरह जो व्यक्ति पापी होता है वह सब प्रकार से यावत् अधिकांशतः दुःखी होता है। इस प्रकार पुण्य
और पाप का फल सुख और दुःख है। सुख एवं दुःख व्यक्ति के व्यक्तित्व अर्थात् शारीरिक एवं मानसिक गठन पर अवलम्बित है जिसका निर्माण पुण्य और पाप अर्थात् शुभ और अशुभ कर्मों के आधार से होता है।
यदि पाप-पुण्य से ही दुःख-सुख होता है तो बाह्य पदार्थों की क्या आवश्यकता है ? यदि पाप-पुण्य दुःख-सुख की उत्पत्ति का ही कारण है तो बाह्य पदार्थों की प्राप्ति किन कारणों से होती है ? दूसरे शब्दों में, सुख-दुःख की उत्पत्ति में बाह्य पदार्थों का क्या योगदान है तथा इनकी प्राप्ति के क्या कारण हैं ? ये दो प्रश्न इस प्रसंग में स्वाभाविकतया पैदा होते हैं।
बाह्य वस्तुएं एवं परिस्थितियाँ सुख-दुःख की उत्पत्ति में अवश्य सहायक बनती हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं, किन्तु इन्हीं
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