________________
कर्म सिद्धान्त
का उदय जारी होता है उसके सजातीय कर्म को ही उदीरणा संभव होती है ।
बन्धन, सत्ता, उदय और उदीरणा में कितनी कर्म- प्रकृतियाँ ( उत्तरप्रकृतियाँ ) होती हैं, इसका भी जैन कर्मशास्त्र में विचार किया गया है । बन्धन में कर्म प्रकृतियों की संख्या एक सोबीस, उदय में एक सौ बाईस, उदीरणा में भी एक सौ बाईस तथा सत्ता में एक सौ अठावन मानी गई है। नीचे की तालिका ' में इन चारों अवस्थाओं में रहनेवाली उत्तरप्रकृतियों की संख्या दी जाती है :
१. ज्ञानावरणीय कर्म २. दर्शनावरणीय कर्म
३. वेदनीय कर्म
४. मोहनीय कर्म ५. आयु कर्म
६. नाम कर्म
७. गोत्र कर्म
८. अन्तराय कर्म
बन्धन
Jain Education International
२
२६
६७
२
उदय उदीरणा
५
५
६७
५
१२२
२८
For Private & Personal Use Only
૪૦
६७
सत्ता
५
ε
२
२८
AW K
५
५.
योग १२०
१२२
१५८
सत्ता में समस्त उत्तरप्रकृतियों का अस्तित्व रहता है जिनकी संख्या एक सौ अठावन है । उदय में केवल एक सौ बाईस प्रकृतियाँ रहती हैं क्योंकि इस अवस्था में पंदरह बन्धन तथा पाँच संवातन -- नाम कर्म की ये बीस प्रकृतियाँ अलग से नहीं गिनी गई हैं अपितु पाँच शरीरों में ही उनका समावेश कर १. कर्मविपाक (पं० सुखनालजीकृत हिन्दी अनुवाद), पृ० १११.
१०३
२
www.jainelibrary.org