Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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जैन धर्म-दर्शन
सहे मोह-बल को भी नष्ट किया जा सके। इस गुणस्थान में साधक को अपूर्व आत्मपरिमाणरूप शद्धि अर्थात पहले कभी प्राप्त न हुई विशिष्ट आत्मगुणशुद्धि की प्राप्ति होती है। चूंकि इस अवस्था में रहा हुआ साधक अपूर्व आध्यात्मिक करण अर्थात् पूर्व में अप्राप्त आरमगुणरूप साधन प्राप्त करता है अथवा उसके करण अर्थात् चारित्ररूप क्रिया की अपूर्वता होती है अतः इसका नाम अपूर्वकरण गुणस्यान है। इसका दूसरा नाम निवृत्ति गुणस्थान भी है क्योंकि इसमें भावों की अर्थात् अध्यवसायों की विषयाभिमखता-पुनः विषयों की ओर लौटने की क्रिया विद्यमान रहती है।
स्थूल कषाय-दृष्ट, श्रुत अथवा भुक्त विषयों की आकांक्षा का अभाव होने के कारण नवें गुणस्थान में अध्यवसायों की विषयाभिमुखता नहीं होती अर्थात् भाव पुनः विषयों की ओर नहीं लौटते । इस प्रकार भावों-अध्यवसायों की अनिवृत्ति के कारण इस अवस्था का नाम अनिवृत्ति गुणस्थान रखा गया है । इस गुणस्थान में आत्मा बादर अर्थात् स्थूल कषायों के उपशमन अथवा क्षण में तत्पर रहती है अत: इसे अनिवृत्तिबादर गुणस्थान, अनिवृत्ति-बादर-सम्पराय (कषाय) गुणस्थान अथवा बादर-सम्पराय गुणस्थान भी कहा जाता है।
सूक्ष्म कषाय-दसवाँ गुणस्थान सूक्ष्म-सम्पराय के नाम से प्रसिद्ध है। इसमें सूक्षम लोभरूप कषाय का ही उदय रहता है। अन्य कषायों का उपशम अथवा क्षय हो चुका होता है।
उपशांत कषाय-जो साधक क्रोधादि कषायों को नष्ट न कर उपशांत करता हुआ ही आगे बढ़ता है-विकास करता है वह क्रमश: चारित्रशुद्धि करता हुआ ग्यारहवें गुणस्थान को प्राप्त करता है। इस गुणस्थान में साधक के समस्त कषाय उपशान्त हो जाते हैं-दब जाते हैं । इसीलिए इसका उपशान्त
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