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कर्मसिद्धान्त
कषाय गुणस्थान अथवा उपशान्त-मोह गुणस्थान नाम सार्थक है। इस गुणस्थान में स्थित आत्मा मोह को एक बार सर्वथा दबा तो देती है किन्तु निर्मूल नाश के अभाव में दबा हुआ मोह राख के नीचे दबी हुई अग्नि की भांति समय आने पर पुनः अपना प्रभाव दिखाने लगता है। परिणामतः आत्मा का पतन होता है। आत्मा इम अवस्था से एक बार अवश्य नीचे गिरती है - इस भूमिका से गिर कर नीचे की किसी भूमिका पर आ टिकती है । यहाँ तक कि इस गुणस्थान से गिरने वाली आत्मा कभी-कभी सबसे नीची भूमिका अर्थात् मिथ्यात्व गुणस्थान तक पहुंच जाती है । इस प्रकार की आत्मा पुनः अपने प्रयास द्वारा कषायों को उपशान्त अथवा नष्ट करती हुई प्रगति कर सकती है।
क्षीण कषाय-कषायों को नष्ट कर आगे बढ़ने वाला साधक दसवें गुणस्थान के अन्त में लोभ के अन्तिम अवशेष को विनष्ट कर मोह से सर्वथा मुक्ति प्राप्त कर लेता है। इस अवस्था का नाम क्षीण कषाय अथवा क्षीणमोह गुणस्थान है। इस गुणस्थान को प्राप्त करने वाले व्यक्ति का कभी पतन नहीं होता । ग्यारहवें गुणस्थान से विपरीत स्वरूप वाले इस बारहवें गुणस्थान की यही विशेषता है। __सदेह मुक्ति-मोह का क्षय होने पर जानादिनिरोधक अन्य कर्म भी नष्ट हो जाते हैं। परिणामतः आत्मा में विशुद्ध ज्ञानज्योति प्रकट होती है। आत्मा की इसी अवस्था का नाम सयोगिकेवली गुणस्थान है। केवली का अर्थ है केवलज्ञान अर्थात् सर्वथा विशुद्धज्ञान से युक्त । सयोगी का अर्थ है योग अर्थात् कायिक आदि प्रवृत्तियों से युक्त। जो विशुद्ध ज्ञानी
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