Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
View full book text
________________
४९४
जैन धर्म-दर्शन
आत्मशक्ति के चार प्रकार के आवरणों-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय-में मोहनीयरूप आवरण प्रधान है। मोह की तीव्रता-मन्दता पर अन्य आवरणों की तीव्रता-मन्दता निर्भर रहती है। यही कारण है कि गुणस्थानों की व्यवस्था में शास्त्रकारों ने मोहशक्ति की तीव्रता-मन्दता का विशेष अवलम्बन लिया है।
मोह मुख्यतया दो रूपों में उपलब्ध होता है : दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय । दर्शनमोहनीय आत्मा को यथार्थता-सम्यक्त्व-विवेकशीलता से दूर रखता है। चारित्रमोहनीय आत्मा को विवेकयुक्त आचरण अर्थात् प्रवृत्ति नहीं करने देता । दर्शनमोहनीय के कारण व्यक्ति की भावना, विचार, दृष्टि, चिन्तन अथवा श्रद्धा सम्यक नहीं हो पाती-सही नहीं बन पाती। सम्यक दृष्टि की उपस्थिति में भी चारित्रमोहनीय के कारण व्यक्ति का क्रियाकलाप सम्यक् अर्थात् निर्दोष नहीं हो पाता। इस प्रकार मोह का आवरण ऐसा है जो व्यक्ति को न तो सम्यक विचार प्राप्त करने देता है और न उसे सम्यक् आचार की ओर ही प्रवृत्त होने देता है।
मिच्या दृष्टि-प्रथम गुणस्थान का नाम दर्शनमोहनीय के . ही आधार पर मिथ्यादृष्टि रखा गया है। यह आत्मा की अधस्तम अवस्था है। इसमें मोह की प्रबलतम स्थिति होने के कारण व्यक्ति की आध्यात्मिक स्थिति बिलकुल गिरी हुई होती है। वह मिथ्या दृष्टि अर्थात् विपरीत श्रद्धा के कारण रागद्वेष के वशीभूत हो आध्यात्मिक किंवा तात्त्विक सुख से वंचित रहता है। इस प्रकार इस गुणस्थान का मुख्य लक्षण मिथ्या दर्शन अथवा मिथ्या श्रद्धान है।
Jain Education International
mational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org