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कर्म सिद्धान्त
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के मध्य में अवस्थित दशाएं तृतीय कोटि की अवस्थाएं हैं। प्रथम प्रकार की अवस्था में चारित्र - शक्ति का सम्पूर्ण हास तथा द्वितीय प्रकार की अवस्था में चारित्र शक्ति का सम्पूर्ण विकास होता है । इन दोनों प्रकार की अवस्थाओं के अतिरिक्त चारित्र विकास की जितनी भी अवस्थाएं हैं, उन सबका समावेश - उभय चरमान्तर्वर्ती तीसरी कोटि में होता है । आत्म-विकास अथवा चारित्र विकास की समस्त अवस्थाओं को जैन कर्मशास्त्र में चौदह भागों में विभाजित किया है जो 'चौदह गुणस्थान' के नाम से प्रसिद्ध हैं । ये जैनाचार के चतुर्दश सोपान अर्थात् जैन चारित्र की चौदह सीढ़ियां हैं । साधक को इन्हीं सीढ़ियों से चढ़ना-उतरना पड़ता है ।
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आत्मिक गुणों के विकास की क्रमिक अवस्थाओं को गुणस्थान कहते हैं । जैन दर्शन यह मानता है कि आत्मा का वास्तविक स्वरूप शुद्ध ज्ञानमय व परिपूर्ण सुखमय है । इसे जैन पदावली में अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख व अनन्तवीर्य कहा जाता है । इस स्वरूप को विकृत अथवा आवृत करने का कार्य कर्मों का है। कर्मावरण की घटा ज्यों-ज्यों घनी होती जाती है त्यों-त्यों आत्मिक शक्ति का प्रकाश मन्द होता जाता है । इसके विपरीत जैसे-जैसे कर्मों का आवरण हटता जाता है अथवा शिथिल होता जाता है वैसे-वैसे आत्मा की शक्ति प्रकट होती जाती है । आत्मिक शक्ति के अल्पतम आविर्भाव वाली अवस्था प्रथम गुणस्थान है । इस गुणस्थान में आत्मशक्ति का प्रकाश अत्यन्त मन्द होता है । आगे के गुणस्थानों में यह प्रकाश क्रमशः बढ़ता जाता है । अन्तिम अर्थात् चौदहवें गुणस्थान में आत्मा अपने असली रूप में पहुंच जाती हैं ।
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