Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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जैन धर्म-दर्शन
दिया गया है। साथ ही वर्ण, गन्ध, रस तथा स्पर्श इन चार पिण्डप्रकृतियों की बीस उत्तरप्रकृतियों के स्थान पर केवल चार ही प्रकृतियाँ गिनी गई हैं। इस प्रकार कुल एक सौ अठावन प्रकृतियों में से नाम कर्म की छत्तीस (बीस और सोलह ) प्रकृतियाँ कम कर देने पर एक सौ बाईस प्रकृतियाँ शेष रह जाती हैं जो उदय में आती हैं । उदीरणा में भी ये ही प्रकृतियाँ रहती हैं क्योंकि जिस प्रकृति में उदय की योग्यता रहती है उसी की उदीरणा होती है। बन्धनावस्था में केवल एक सौ बीस प्रकृतियों का ही अस्तित्व माना गया है। सम्यक्त्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय कर्मों का बन्धन अलग से न होकर मिथ्यात्व-मोहनीय कर्म के रूप में ही होता है क्योंकि (कर्मजन्य) सम्यक्त्व और सम्यक्-मिथ्यात्व मिथ्यात्व की ही विशोधित अवस्थाएं हैं। इन दो प्रकृतियों को उपर्युक्त एक सौ बाईस प्रकृतियों में से कम कर देने पर एक सौ बीस प्रकृतियाँ बाकी बचती हैं जो बन्धनावस्था में विद्यमान रहती हैं ।
५. उद्वर्तना-बद्धकर्मों की स्थिति और अनुभाग-रस का निश्चय बन्धन के समय विद्यमान कषाय की तीव्रता-मन्दता के अनुसार होता है। उसके बाद की स्थितिविशेष अथवा भावविशेष-अध्यवसायविशेष के कारण उस स्थिति तथा अनुभाग में वृद्धि हो जाना उद्वर्तना कहलाता है। इस अवस्था को उत्कर्षण भी कहते हैं।
६. अपवर्तना-बद्धकर्मों की स्थिति तथा अनुभाग में अध्यवसायविशेष से कमी कर देने का नाम अपवर्तना है। यह अवस्था उद्वर्तना से बिल्कुल विपरीत है। इसका दूसरा नाम अपकर्षण भी है । इन अवस्थाओं की मान्यता से यही सिद्ध
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