Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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कमसिद्धान्त
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प्रशंसा करनी चाहिए, न उसके पाप की निन्दा। जहां तक उसको बुद्धि, शक्ति, श्रमशीलता आदि का उस फलप्राप्ति से सम्बन्ध हो वहीं तक उसके पुण्य-पाप को सराहना-कोसना चाहिए। संयोगवशात् अल्प प्रयत्न करने पर भी अधिक लाभ हो सकता है तथा प्रचुर पुरुषार्थ करने पर भी पर्याप्त लाभ नहीं हो सकता इतना ही नहीं, कभी-कभी पुरुषार्थ के अभाव में ही अकस्मात् भारी लाभ हो जाता है तथा इसके विपरीत कभी-कभी अथक प्रयत्न करने पर भी कुछ भी प्राप्त नहीं होता। इन सब दशाओं का पुण्य-पाप से कोई सम्बन्ध नहीं है। किमी व्यक्ति का पुण्य-पाप उसके व्यक्तित्व को संचालित एवं प्रभावित करता है, उसके नियन्त्रण के अन्दर की परिस्थितियों को नियन्त्रित एवं निर्मित करता है। जो परिस्थितियां एवं घटनाएं उसके नियन्त्रण के बाहर हैं उनके लिए वह उत्तरदायी नहीं है, उनसे उसके पुण्य-पाप का कोई सम्बन्ध नहीं हैं। ऐसी परिस्थितियाँ एवं घटनाएं अपने-अपने विशिष्ट कारणों से उत्पन्न होती हैं जिनका उस व्यक्ति से साक्षात् या असाक्षात् कोई सम्बन्ध नहीं होता। संयोगवशात् या अकस्मात् वे परिस्थितियाँ तथा घटनाएं उस व्यक्ति के मुख-दुःख का कारण बन जाती हैं । हाँ, उन परिस्थितियों एवं घटनाओं से प्रभावित होने की योग्यता उसकी अपनी होती हैउसके पुण्य-पाप की देन होती है।
बाा साधनों अर्थात् धनादि की उपलब्धि पुण्य से ही होती है, ऐसा कोई ऐकान्तिक नियम नहीं है। पुण्यशालियों अर्थात् सदाचारियों की भाँति पापी अर्थात् दुराचारी एवं भ्रष्टाचारी भी समृद्धि प्राप्त करने वाले देखे जाते हैं। इतना - ही नहीं, बहुधा पापी लोग पुण्यात्माओं से समृद्धि में आगे बढ़े
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