Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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जैन धर्म-दर्शन
राय ।' दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य से सम्बन्धित पदार्थ अर्थात् विषय बाह्य हैं तथा तत्सम्बद्ध कर्म यानी दानान्तराय आदि कर्म आन्तरिक हैं।
देय वस्तु के विद्यमान रहने एवं उपयुक्त अवसर के उपस्थित होने पर भी देने की भावना न होना दानान्तराय कर्म के उदय का फल है। इस कर्म के उदय से व्यक्ति के अन्तर में देने की भावना या इच्छा उत्पन्न नहीं हो पाती। विपरीत इसके दानान्तराय कर्म का क्षय-उपशम होने पर व्यक्ति के अन्तर में देने की भावना पैदा होती है। आन्तरिक भावना के अभाव में बाह्य पदार्थ का दान न करना एवं आन्तरिक इच्छा होने पर बाह्य वस्तु का दान करना भावना के असद्भाव एवं सद्भाव का साधारण फल है। विशेष परिस्थिति में ऐसा भी देखा जाता है कि आन्तरिक इच्छा के अभाव में भी बाह्य वस्तु प्रदान की जाती है तथा आन्तरिक भावना का सद्भाव होने पर भी बाह्य वस्तु प्रदान नहीं की जा सकती। इन अवस्थाओं में दानान्तराय कर्म के उदय-क्षय-उपशम का निर्णय बाह्य पदार्थों के प्रदान के आधार पर नहीं किया जा सकता। बाह्य पदार्थ देना या दे पाना अथवा नहीं देना या नहीं दे पाना अपने से भिन्न अन्य परिस्थितियों पर भी निर्भर करता है। इन परिस्थितियों का अपने दानान्तराय कर्म से सम्बन्ध नहीं होता। अपना दानान्तराय कर्म अपनी भावनाओं से सम्बद्ध होता है, बाह्य पदार्थों अथवा बाह्य परिस्थितियों से नहीं । हाँ, बाह्य वस्तुएँ एवं परिस्थितियाँ कर्मों के उदय-क्षय-उपशम का निमित्त अवश्य बन सकती हैं किन्तु उपादान तो आन्तरिक ही रहेगा। दानान्तराय आदि १. सटीक प्रथम कर्म ग्रन्थ, पृ० ५८.
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