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कर्मसिद्धान्त
नाम कर्म की एक सौ तीन उत्तरप्रकृतियाँ हैं । ये प्रकृतियां चार भागों में विभक्त हैं : पिण्डप्रकृतियाँ, प्रत्येकप्रकृतियाँ, त्रसदशक और स्थावरदशक । इन प्रकृतियों के कारणरूप कर्मों के भी वे ही नाम हैं जो इन प्रकृतियों के हैं। पिण्डप्रकृतियों में पचहत्तर प्रकृतियों का समावेश है : १. चार गतियाँ-देव, नरक, तिर्यञ्च और मनुष्य; २. पाँच जातियाँ-एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय; ३ पांच शरीरऔदारिक, वैक्रिय, आहारक, तेजस और कार्मण; ४. तीन उपांग-औदारिक, वैक्रिय और आहारक (तैजस और कार्मण शरीर के उपांग नहीं होते); ५. पंदरह बन्धन-औदारिक
औदारिक, औदारिक-तेजस, औदारिक-कार्मण, औदारिकतेजस-कार्मण, वैक्रिय-क्रिय, वैक्रिय-तैजस, वैक्रिय-कार्मण, वैक्रिय-तैजस-कार्मण, आहारक-आहारक, आहारक-तैजस, आहारक-कार्मण, आहारक-तैजस-कार्मण, तैजस-तैजस, तैजस-कार्मण और कार्मण-कार्मण; ६. पाँच संघातन-औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण; ७. छः संहननवज्रऋषभनाराच, ऋषभनाराच, नाराच, अर्धनाराच, कीलिक और सेवात; ८. छः संस्थान-समचतुरस्र, न्यग्रोधपरिमंडल, सादि, कुन्ज, वामन और हुण्ड; ६. शरीर के पाँच वर्ण-कृष्ण, नील, लोहित, हारिद्र और सित; १०. दो गन्ध-सुरभिगन्ध और दुरभिगन्ध; ११. पाँच रस-तिक्त, कटु, कषाय, आम्ल और मधुर; १२. आठ स्पर्श-गुरु, लघु, मृदु, कर्कश, शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष; १३. चार आनुपूर्वियाँ-देवानुपूर्वी, मनुष्यानुपूर्वी, तिर्यञ्चानुपूर्वी और नरकानुपूर्वी; १४. दो गतियाँ-शुभविहायोगति और अशुभविहायोगति । प्रत्येक प्रकृतियों में निम्नोक्त आठ प्रकृतियाँ समाविष्ट हैं : पराघात,
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