________________
जैन धर्म-दर्शन
उच्छवास, आतप, उद्योत, अगुरुलघु, तीर्थकर, निर्माण और उपघात । त्रसदशक में निम्न प्रकृतियाँ हैं : त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय और यश:कीर्ति । स्थावरदशक में त्रसदशक से विपरीत दस प्रकृतियाँ समाविष्ट हैं : स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और अयश:कीति । इस प्रकार नाम कर्म की उपयुक्त एक सौ तीन (७५ पिण्डप्रकृतियाँ+ ८ प्रत्येक प्रकृतियाँ +१० त्रसदशक+१० स्थावरद शक) उत्तरप्रकृतियाँ हैं।' इन्हीं प्रकृतियों के आधार पर प्राणियों के शारीरिक वैविध्य का निर्माण होता है।
___ गोत्र कर्म की दो उत्तरप्रकृतियाँ हैं : उच्च और नीच । जिस कर्म के उदय से प्राणी उच्च कुल में जन्म ग्रहण करता है उसे उच्चगोत्र कर्म कहते हैं । जिस कर्म के उदय से प्राणी का जन्म नीच कुल में होता है उसे नीचगोत्र कर्म कहते हैं । उच्च कुल का अर्थ है संस्कारी एवं सदाचारी कुल । नीच कुल का अर्थ है असंस्कारी एवं आचारहीन कुल ।
शारीरिक ( मानसिकसहित ) वैविध्य के कारणों में प्रधानतः दो प्रकार के कर्म समाविष्ट होते हैं : नाम और गोत्र । नाम कर्म संक्षेपतः शुभ एवं अशुभ शरीर का कारण १. माम कर्म से सम्बन्धित विशेष विवेचन के लिए देखिए-कर्मग्रन्थ,
प्रथम भाग अर्थात् कर्मविपाक (पं० सुखलालजीकृत हिन्दी अनु. वादसहित), पृ०५८-१०५; Outlines of Jaina Philosophy (M. L. Mehta), पृ०१४२-५; Outlines of Karma in Jainism (M. L. Mehta), पृ० १०-१३.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org