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जैन धर्म-दर्शन
है। अन्तराम
प्रतिकूल संवेदका घात होता
आत्मा के दर्शनगुण का घात होता है। मोहनीय सुख-आत्मसुख-परमसुख-शाश्वतसुख का घातक है। अन्तराय से वीर्य अर्थात् शक्ति का घात होता है। वेदनीय अनुकूल एवं प्रतिकल संवेदन अर्थात् सुख-दुःख का कारण है। आयु से आत्मा को नारकादि विविध भवों की प्राप्ति होती है। नाम के कारण जीव को विविध गति, जाति, शरीर आदि प्राप्त होते हैं । गोत्र प्राणियों के उच्चत्व-नीचत्व का कारण है।
ज्ञानावरणीय कर्म की पांच उत्तर-प्रकृतियाँ हैं : १. मतिज्ञानावरण, २. श्रुतज्ञानावरण, ३. अवधिज्ञानावरण, ४. मनःपर्यय, मनःपर्यव अथवा मन:पर्याय-ज्ञानावरण और ५. केवलज्ञानावरण । मतिज्ञानावरणीय कर्म मतिज्ञान अर्थात् इन्द्रिय और मन से उत्पन्न होने वाले ज्ञान को आच्छादित करता है । श्रुतज्ञानावरणीय कर्म श्रुतज्ञान अर्थात् शास्त्रों अथवा शब्दों के पठन तथा श्रवण से होनेवाले अर्थज्ञान का निरोध करता है। अवधिज्ञानावरणीय कर्म अवधिज्ञान अर्थात् इन्द्रिय तथा मन की सहायता के बिना होने वाले रूपी द्रव्यों के ज्ञान को आवृत करता है । मन पर्यायज्ञातावरणीय कर्म मनःपर्यायज्ञान अर्थात् इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना संज्ञी-समनस्क -मन वाले जीवों के मनोगत भावों को जानने वाले ज्ञान को आच्छादित करता है। केवलज्ञानावरणीय कर्म केवलज्ञान अर्थात लोक के अतीत, वर्तमान एवं अनागत समस्त पदार्थों को युगपत्-एक साथ जानने वाले ज्ञान को आवृत करता है।
दर्शनावरणीय कर्म की नौ उत्तर-प्रकृतियाँ हैं : १. चक्षुर्दर्शनावरण, २. अचक्षुर्दर्शनावरण, ३. अवधिदर्शनावरण, ४. केवलदर्शनावरण, ५. निद्रा, ६. निद्रा-निद्रा, ७. प्रचला,
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