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जैन धर्म-दर्शन
के उदय से इस प्रकार की नींद आती है उसका नाम भी स्त्यानद्धि अथवा स्त्यानगृद्धि है।
वेदनीय अथवा वेद्य कर्म की दो उत्तरप्रकृतियां हैं : साता और अमाता । जिस कर्म के उदय से प्राणी को अनुकूल विषयों की प्राप्ति से सुख का अनुभव होता है उसे मातावेदनीय कर्म कहते हैं। जिस कर्म के उदय से प्रतिकल विषयों की प्राप्ति होने पर दुःख का सवेदन होता है उसे असातावेदनीय कर्म कहते हैं। आत्मा को विषयनिरपेक्ष स्वरूप-सुख का संवेदन किसी भी कर्म के उदय की अपेक्षा न रखते हुए स्वतः होता है। इस प्रकार का विशुद्ध सुख आत्मा का निजी धर्म है। वह साधारण सुख की कोटि से ऊपर है । __ मोहनीय कर्म की मुख्य दो उत्तर-प्रकृतियाँ हैं : दर्शनमोह अर्थात् दर्शन का घात और चारित्रमोह अर्थात् चारित्र का घात । जो पदार्थ जमा है उसे वैसा ही समझने का नाम दर्शन है। यह तत्त्वार्थ-श्रद्धानरूप आत्मगुण है। इस गुण का घात करने वाले कर्म का नाम दर्शनमोहनीय है। जिसके द्वारा आत्मा अपने यथार्थ स्वरूप को प्राप्त करता है उसे चारित्र कहते हैं । चारित्र का घात करने वाला कर्म चारित्रमोहनीय कहलाता है। दर्शनमोहनीय कर्म के पुनः तीन भेद हैं : सम्यक्त्वमोहनीय, मिथ्यात्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय । सम्यक्त्वमोहनीय के दलिक-कर्मपरमाणु शुद्ध होते हैं । यह कर्म शुद्धस्वच्छ परमाणुओं वाला होने के कारण तत्त्वरुविरूप सम्यक्त्व में बाधा नहीं पहुंचाता किन्तु इसके उदय से आत्मा को स्वा. भाविक सम्यक्त्व-कर्मनिरपेक्ष सम्यक्त्व-क्षायिक सम्यक्त्व नहीं हो पाता । परिणामतः उसे सूक्ष्म पदार्थों के चिन्तन में शंकाएं हुआ करती हैं। मिथ्यात्वमोहनीय के दलिक अशुद्ध होते
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