Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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कर्मसिद्धान्त
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बौद्ध दर्शन में मनोजन्य संस्कार अर्थात् कर्म को वासना तथा वचन एवं कायजन्य संस्कार (कर्म) को अविज्ञप्ति कहा गया है । लोभ, द्वेष और मोह कर्मों की उत्पत्ति के हेतु हैं । लोभ, द्वेष एवं मोहयुक्त होकर प्राणी मन, वचन और काय की प्रवृत्तियाँ करता है तथा पुनः लोभ, द्वेष एवं मोह को उत्पन्न करता है । इस प्रकार संसार-चक्र गतिमान रहता है । यह चक्र अनादि है ।"
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जैन दर्शन में कर्म का स्वरूप - जैन दर्शन कर्म को पुद्गलपरमाणुओं का पिण्ड मानता है। जीवों की विविधता का मूल कारण यही कर्म है । जीव और कर्म का सम्बन्ध अनादि है । जो पुद्गल - परमाणु कर्मरूप से परिणत होते हैं उन्हें कर्म-वर्गणा कहते हैं तथा जो शरीररूप से परिणत होते हैं उन्हें नोकर्मवर्गणा कहते हैं । लोक इन दोनों प्रकार के परमाणुओं से पूर्ण है । जीव अपने मन, वचन और काय की प्रवृत्तियों से इन परमाणुओं को ग्रहण करता रहता है। मन, वचन अथवा काय की प्रवृत्ति तभी होती है जब जीव के साथ कर्म सम्बद्ध हो तथा जीव के साथ कर्म तभी सम्बद्ध होता है जब मन, वचन अथवा काय की प्रवृत्ति हो । इस प्रकार कर्म से प्रवृत्ति तथा प्रवृत्ति से कर्म की परम्परा अनादि काल से चली आ रही है । कर्म और प्रवृत्ति के इस कार्य कारणभाव को दृष्टि में रखते हुए पुद्गलपरमाणुओं के पिण्डरूप कर्म को द्रव्यकर्म तथा रागद्वेषादिरूप प्रवृत्तियों को भावकर्म कहा गया है । द्रव्यकर्म और भावकर्म का कार्य कारणभाव मुर्गी और अण्डे के समान अनादि है ।
१. अंगुत्तरनिकाय, ३. ३३. १; संयुत्तनिकाय, १५.५.६. २. कर्म प्रकृति ( नेमिचन्द्राचार्य विरचित ), ६.
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