Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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जैन धर्म-दर्शन
कर्म का सम्बन्ध इस आन्तरिक कारण से है, बाह्य वस्तुओं से नहीं। बाह्य वस्तुओं की उत्पत्ति, प्राप्ति, विनाश आदि अपनेअपने कारणों से होता है, हमारे कर्मों के कारण नहीं। हमारे कर्म हम तक ही सीमित हैं, सर्वव्यापक नहीं । जा हमारे कर्म हम तक ही सीमित हैं अर्थात् हमारे शरीर और आत्मा तक ही मर्यादित हैं तब वे हमसे भिन्न अति दूर के पदार्थों को कैसे उत्पन्न कर सकते हैं, कैसे आकषित कर सकते हैं, कैसे हम तक पहुंचा सकते हैं, कैसे बढ़ा-घटा सकते हैं, कैसे नष्ट कर सकते हैं, कैसे सुरक्षित रख सकते हैं ? ये सारे कार्य हमारे कर्मों से नहीं, अन्यान्य कारणों से होते हैं । सुख-दुःखादि की अनुभूति में निमित्त, सहायक अयवा उत्तेजक होने के कारण उपचार से या परंसरा से बाह्य वस्तुओं को पुण्य-पाप का परिणाम मान लिया जाता है।
जैन सिद्धान्त जीव की विविध अवस्थाओं को कर्मजन्य मानता है, संसार के समस्त कार्यों को नहीं। शरीर, इन्द्रियाँ, श्वासोच्छ गस, वचन, मन आदि जीव की विविध अवस्थाएं कर्म के कारण होती हैं। अन्य कार्य अपने-अपने कारणों से होते हैं । उनका कारण कर्म नहीं होता। पत्नी या पति की प्राप्ति अथवा मृत्यु. पुत्र या पुत्री की प्राप्ति अथवा मृत्यु, व्यवसाय में हानि-लाभ, किसी प्रकार की आकस्मिक दुर्घटना, संयोगवियोग, लाभ-हानि, मृत्यु व अन्य संकट, ऋतु की तीव्रता-मन्दता, सुकाल या दुष्काल. प्रकृति-प्रकोप, राज्यकृत अथवा अन्यकृत प्रकोप, शत्रु-मित्र, सुपुत्र-कुपुत्र आदि अपने-अपने कारणों से होते हैं, हमारे कर्मो से नहीं । इनमें से कुछ कार्यों अथवा घटनाओं के प्रति हमारी यत्किञ्चित् निमित्त ता अवश्य
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