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कर्म सिद्धान्त
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का कारण माना गया है। जो कुछ हो, यह निश्चित है कि कर्मोपार्जन का कोई भी कारण क्यों न माना जाए, राग-द्वेषजनित प्रवृत्ति ही कर्मबन्ध का प्रधान कारण है । राग-द्वेष की न्यूनता अथवा अभाव से अज्ञान, वासना अथवा मिथ्यात्व कम हो जाता अथवा नष्ट हो जाता है । राग-द्वेषरहित प्राणी कर्मोपार्जन के योग्य विकारों से सदैव दूर रहता है। उसका मन हमेशा अपने नियन्त्रण में रहता है ।
कर्मबन्ध की प्रक्रिया :
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जैन कर्मग्रन्थों में कर्मबन्ध की प्रक्रिया का सुव्यवस्थित वर्णन किया गया है । सम्पूर्ण लोक में ऐसा कोई भी स्थान नहीं है जहाँ कर्मयोग्य पुद्गल - परमाणु विद्यमान न हों। जब प्राणी अपने मन-वचन अथवा तन से किसी भी प्रकार की प्रवृत्ति करता है तब चारों ओर से कर्मयोग्य पुद्गल - परमाणुओं का आकर्षण होता है (आस्रव) । जितने क्षेत्र अर्थात् प्रदेश में उसकी आत्मा विद्यमान रहती है उतने ही प्रदेश में विद्यमान परमाणु उसके द्वारा उस समय ग्रहण किये जाते हैं, अन्य नहीं । प्रवृत्ति की तरतमता के अनुसार परमाणुओं की संख्या में भी तारतम्य होता है । प्रवृत्ति की मात्रा में अधिकता होने पर परमाणुओं की संख्या में भी अधिकता होती है एवं प्रवृत्ति की मात्रा में न्यूनता होने पर परमाणुओं की संख्या में भी न्यूनता होती है । गृहीत पुद्गल - परमाणुओं के समूह का कर्मरूप से आत्मा के साथ बद्ध होना (बन्ध) जैन कर्मवाद की परिभाषा में प्रदेश बन्ध कहलाता है । इन्हीं परमाणुओं की ज्ञानावरण
१ जैन दर्शन को मान्यता है कि आत्मा शरीरव्यापी है । देह से बाहर आत्मतत्त्व विद्यमान नहीं होता ।
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