Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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कर्म सिद्धान्त
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हो सकती है किन्तु उनका प्रमुख अथवा मूत्र कारण तो उन्हीं के भीतर विद्यमान रहता है, हमारे अन्दर नहीं । पुत्र अथवा अन्य किसी प्रियजन की प्राप्ति को हम अपने शुभ कर्म अर्थात् पुण्य का कार्य समझते हैं तथा उसकी मृत्यु को अपने अशुभ कर्म अर्थात् पाप का फल मानते हैं । यह मान्यता युक्तियुक्त नहीं है । जिता के पुण्योदय से पुत्र की उत्पत्ति या पिता के पापोदय से पुत्र की मृत्यु नही होती । पुत्र की उत्पत्ति तथा मृत्यु का कारण उसका अपना कर्मोदय एव कर्मक्षय है, पिता का पुण्योदय एवं पापोदय नहीं। हां, पुत्र की उत्पत्ति होने के बाद पिता को, यदि वह जीवित है तथा मोहनीय कर्म से युक्त है तो, हर्ष हो सकता है एवं मृत्यु होने पर शोक | इस हर्ष एवं शोक का मूल कारण पिता का पुण्योदय एवं पापोदय है तथा निमित्त कारण पुत्र की उत्पत्ति एवं मृत्यु है । इस प्रकार पिता का पुण्योदय व पापोदय पुत्र की उत्पत्ति व मृत्यु का कारण नहीं है अपितु पुत्र की उत्पत्ति व मृत्यु पिता के पुण्योदय व पापोदय का निमित्त बन सकती है । यही बात इसा प्रकार की अन्य घटनाओं के विषय में भी समझ लेनी चाहिए । व्यक्ति के कर्मदय, कर्मक्षय, कर्मोंपशम आदि की एक सीमा है और वह है उसका शरीर, मन आदि । इस सीमा से बाहर अर्थात् मन-वचन-काय की परिधि का उल्लंघन कर कर्मोदय आदि नहीं होता । यही कारण है कि वस्तुतः स्वेतर समस्त पदार्थों की उत्पत्ति आदि अपने-अपने कारणो से होती है, हमारे कर्मोदय आदि से नहीं ।
आत्मा और कर्म का सम्बन्ध अनादि है । जीव पुराने कर्मों का क्षय करता हुआ नवीन कर्मों का उपार्जन करता रहता है । जब तक प्राणी के पूर्वोपार्जित समस्त कर्म नष्ट नहीं हो जाते एवं नवीन कर्मों का आगमन बन्द नहीं हो जाता तब तक
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