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जैन धर्म दर्शन
अर्थात् शुद्ध अवस्था में हों यानी स्वभाव में हों तो कर्म की उत्पत्ति का कोई प्रश्न ही नहीं उठता-परभाव के कर्तृत्व का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता। जब हम यह जानते हैं कि संसारी जीव स्वभाव में स्थित नहीं है किन्तु स्व और पर भावों की मिश्रित अवस्था में स्थित है तब उसे केवल स्वभाव का कर्ता कैसे कहा जा सकता है ? जब हम यह कहते हैं कि जीव कर्मों का कर्ता है तो हमारा तात्पर्य यह नहीं होता कि जीव पुद्गल का निर्माण करता है। पुद्गल तो पहले से ही मौजूद है। उसका निर्माण जीव क्या करेगा? जीव तो अपने आसपास में स्थित पुद्गल-परमाणुओं को अपनी प्रवृत्तियों के द्वारा अपनी ओर आकृष्ट कर अपने में मिला कर नीरक्षीरवत् एकमेक कर देता है। इसी का नाम है कर्मों का यानी द्रव्यकर्मों का कर्तृत्व । ऐसी स्थिति में यह कथन अनुपयुक्त प्रमाणित होता है कि जीव द्रव्यकर्मों का कर्ता नहीं है। यदि जीव द्रव्यकर्मों का कर्ता नहीं है तो कौन है ? पुद्गल स्वतः कर्मरूप में परिणत नहीं होता है। उसे जीव ही कर्मरूप में परिणत करता है। दूसरी बात यह है कि द्रव्यकर्मों के कर्तृत्व के अभाव में भावकर्मों का कर्तृत्व कैसे संभव होगा? द्रव्यकर्म ही तो भावकर्म की उत्पत्ति में कारण है अन्यथा द्रव्यकर्मो से मुक्त सिद्ध आत्माओं में भी भावकों की उत्पत्ति हो जाएगी। जब जीव कर्मों का कर्ता अर्थात् पुद्गल-परमाणुओं को कर्मों के रूप में परिणत करनेवाला प्रमाणित हो जाता है तो वह कर्मफल का भोक्ता भी सिद्ध हो ही जाता है क्योंकि जो कर्मो से बद्ध होता है वही उनका फल भी भोगता है। इस प्रकार संसारी जीव कर्मों का कर्ता तथा उनके फल का भोक्ता प्रमाणित होता है। मुक्त जीव न तो कर्मो का कर्ता ही प्रमाणित होता है और न उनके फल का भोक्ता ही।
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