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जैन धर्म-दर्शन
दोनों के सम्मिलित एवं पारसरिक प्रभाव के कारण हो यह सब होता है। कर्म के कर्तृव में जीव की ऐसी निमित्ता नहीं है कि जीव मांख्य पुरुष की तरह निष्क्रिय अवस्था में निर्लिप्त भाव से विद्यमान रहता हो और पुद्गल स्वतः कर्म के रूप में परिणत हो जाता हो । जीव और पुद्गल के मिश्रणमिलन- लिप्तभाव से ही कर्म की उत्पत्ति होती है । जीव को एकान्तरूप से चेतन एवं कर्म को एकान्तरूप से जड़ नहीं मानना चाहिए | जीव भी कर्म ( पुद्गल ) के संसर्ग के कारण कथंचित् जड़ है तथा कर्म भी जीव ( चैतन्य ) के संसर्ग के कारण कथंचित् चेतन है । जब जीव और कर्म एक-दूसरे से बिलकुल अलग-अलग हो जाते हैं अर्थात् उनमें कोई सम्पर्क नहीं रह जाता तब वे अपने शुद्ध स्वरूप में आ जाते हैं यानी जीव एकान्तरूप से चेतन हो जाता है और कर्म एकान्तरूप से जड़ |
संसारी जीव और द्रव्यकर्मरूप पुद्गल के मिश्रण एवं परस्पर के प्रभाव के कारण ही जीव में राग-द्वेषादि भावकर्म की उत्पत्ति संभव होती है । यदि जीव अपने शुद्ध स्वभाव का ही कर्ता हो तथा पुद्गल अपने शुद्ध स्वभाव का ही, तो रागद्वेषादि भावों का कर्ता कौन होगा ? राग द्वेषादि भाव न तो - जीव के शुद्ध स्वभाव के अन्तर्गत हैं और न पुद्गल के शुद्ध स्वभाव के अन्तर्गत । ऐसी स्थिति में उनका कर्ता किसे माना जाय ? चेतन आत्मा और अचेतन द्रव्यकर्म के मिश्रित रूप को ही इन अशुद्ध- वैभाविक भावों का कर्ता माना जा सकता है । जैसे राग द्वेषादि चेतन और अचेतन द्रव्यों के मिश्रण से उत्पन्न होते हैं वैसे ही मन-वचन-कायादि भी इनके मिश्रण से
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