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कर्मसिद्धान्त
आशय, धर्माधर्म, अदृष्ट, संस्कार, देव, भाग्य आदि शब्द प्रयुक्त हुए हैं । वेदान्त दर्शन में माया, अविद्या और प्रकृति शब्दों का प्रयोग दृष्टिगोचर होता है । मीमांसा दर्शन में अपूर्व शब्द का प्रयोग हुआ है । बौद्ध दर्शन में वासना एवं अविज्ञप्ति शब्द विशेषरूप से मिलते हैं । सांख्य-योग दर्शन में आशा शब्द विशेषतः उपलब्ध होता है। न्याय-वैशेषिक दर्शन में अदृष्ट, संस्कार तथा धर्माधर्म शब्द विशेषतया प्रचलित हैं। देव, भाग्य, पुण्य-पाप आदि अनेक शब्द ऐसे हैं जिनका प्रयोग सामान्यतः सब दर्शनों में हुआ है। भारतीय दर्शनों में केवल चार्वाक दर्शन ही ऐसा हैं जो कर्मवाद में विश्वास नहीं करता । चूंकि वह आत्मा अर्थात् चेतन तत्त्व का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं मानता इसलिए कर्म एवं तपरिणामरूप पुनर्भव एवं परलोक को सत्ता की भी आवश्यकता अनुभव नहीं करता । चार्वाक दर्शन के अतिरिक्त समस्त भारतीय दर्शनों न किसी-न-किसी रूप में अयदा किसी-न-किसी नाम से कर्म की सत्ता स्वीकार की है तथा तनिष्पन पुनर्भव तथा परलोक का अस्तित्व माना है। ___न्याय दर्शन के अनुसार राग, द्वेष और मोह इन तीनों दोषों से प्रेरणा प्राप्त कर जीवों के मन, वचन और काय की प्रवृत्तियाँ होती हैं । इन प्रवृत्तियों से धर्म तथा अधर्म की उत्पत्ति होती है । ये धर्म और अधर्म संस्कार कहलाते हैं । वैशेषिक दर्शन में जो चौबीस गुण माने गये हैं उनमें अदृष्ट भी समाविष्ट है। यह गुण संस्कार से भिन्न है तथा इसके धर्म और अधर्म ये दो । भेद हैं। इस प्रकार न्याय दर्शन में जिन धर्म-अधर्म का समा१. न्यायभाष्य, १.१.२ आदि. २. प्रशस्तपादभाष्य (चौखम्बा संस्कृत सिरीज, बनारस, १९३०),
पृ. ४७.
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