Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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जैन धर्म दर्शन
कर्म का स्वरूप : ___ कर्म का शाब्दिक अर्थ कार्य, प्रवृत्ति अथवा क्रिया होता है अर्थात् जो कुछ किया जाता है उसे कर्म कहते हैं, जैसे-खाना, पीना, चलना, दौड़ना, रोना, हंसना, सोचना, बोलना आदि । व्यवहार में काम-धन्धे अथवा व्यवसाय को कर्म कहा जाता है। कर्मकाण्डी मीमांसक यज्ञ आदि क्रियाओं को कर्म कहते हैं। स्मार्त विद्वान् चार वर्णों और चार आश्रमों के कर्तव्यों को कर्म की संज्ञा देते हैं। पौराणिक लोग व्रत-नियम आदि धार्मिक क्रियाओं को कर्मरूप मानते हैं । व्याकरणशास्त्र में कर्ता जिसे अपनी क्रिया द्वारा प्राप्त करना चाहता है अर्थात् जिस पर कर्ता के व्यापार का फल गिरता है उसे कर्म कहते हैं। न्यायशास्त्र में उत्क्षेपण, अपक्षेपण, आकुंचन, प्रसारण तथा गमनरूप पांच प्रकार की क्रियाओं के लिए कर्म शब्द व्यवहृत होता है। योग दशन में संस्कार को वासना, अपूर्व अथवा कम कहा जाता है। बौद्ध दर्शन जीवों की विचित्रता के कारण को कर्म कहता है जो वासनारूप है। जैन दर्शन में रागद्वेषात्मक परिणाम अर्थात् कषाय भावकर्म तथा कार्मण वर्ग का पुद्गल अर्थात् जड़ तत्त्वविशेष, जोकि कषाय के कारण आत्मा अर्थात् चेतन तत्त्व के साथ घुल-मिल जाता है, द्रव्यकर्म कहलाता है। आत्मा की संसार में स्थिति कर्म के कारण ही है। कर्म का सम्पूर्ण क्षय होने पर आत्मा की मुक्ति अर्थात् पूर्ण विशुद्धि हो जाती है। इस अवस्था में कर्म परमाणु आत्मा से हमेशा के लिए अलग हो जाते हैं।
विभिन्न परम्पराओं में कर्म-जिस अर्थ में जैन दर्शन में कर्म शब्द का प्रयोग हुआ है उस अथवा उससे मिलते-जुलते अर्थ में अन्य दर्शनों में माया, अविद्या, प्रकृति, अपूर्व, वासना, अविज्ञप्ति,
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