________________
४१४
जैन धर्म-दर्शन
कर्मसिद्धान्त का सुव्यवस्थित, सुसम्बद्ध एवं सर्वाङ्गपूर्ण निरूपण किया है वैसा अन्यत्र दुर्लभ ही नहीं, अप्राप्य है। कर्म सिद्धान्त जैन विचारधारा एवं आचारपरम्परा का एक अविच्छेद्य अंग है । जैन दर्शन एवं जैन आचार की समस्त महत्त्वपूर्ण मान्यताएँ व धारणाएँ कर्मसिद्धान्त पर अवलम्बित हैं ।
कर्मसिद्धान्त के आधारभूत हेतु ये हैं :
१. प्रत्येक क्रिया का कोई-न-कोई फल अवश्य होता है । दूसरे शब्दों में, कोई भी क्रिया निष्फल नहीं होती। इसे कार्यकारणभाव अथवा कर्म - फलभाव कहते हैं ।
२. यदि किसी क्रिया का फल प्राणी के वर्तमान जीवन में प्राप्त नहीं होता तो उसके लिए भविष्यकालीन जीवन अनिवार्य है ।
३. कर्म का कर्ता एवं भोक्ता स्वतन्त्र आत्मतत्त्व निरन्तर एक भव से दूसरे भाव में गमन करता रहता है । किसी-न-किसी भव के माध्यम से ही वह एक निश्चित कालमर्यादा में रहता हुआ अपने पूर्वकृत कर्मों का भोग तथा नवीन कर्मों का बन्ध करता है । कर्मों की इस परम्परा को तोड़ना भी उसकी शक्ति के बाहर नहीं है ।
1
४. जन्मजात व्यक्तिभेद कर्मजन्य हैं । व्यक्ति के व्यवहार तथा सुख-दुःख में जो असामञ्जस्य अथवा असमानता दृष्टिगोचर होती है वह कर्मजन्य ही है ।
५. कर्मबन्ध तथा कर्मभोग का अधिष्ठाता प्राणी स्वयं है । तदतिरिक्त जितने भी हेतु दृष्टिगोचर होते हैं वे सब सहकारी अथवा निमित्तभूत हैं ।
कर्मवाद और इच्छा-स्वातन्त्र्य :
प्राणी अनादिकाल से कर्मपरम्परा में उलझा हुआ है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org