Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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जैन धर्म-दर्शन
हैं | पंचभूतवाद की मान्यता है कि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश ये पांच भून ही यथार्थ हैं और इन्हीं से जीव की उत्पत्ति होती है । तज्जीवतच्छरीरवाद और पंचभूतवाद में सूक्ष्म अन्तर यह है कि एक के मत से शरीर और जीव एक ही हैं अर्थात् दोनों में कोई भेद ही नहीं है जबकि दूसरे के मत से पांच भूतों के सम्मिश्रण से शरीर का निर्माण होने पर जीव की उत्पत्ति होती है एवं शरीर का नाश होने पर जीव भी नष्ट हो जाता है ।
भूतवादी आत्मा को स्वतन्त्र तत्त्व न मानकर शरीर से सम्बद्ध चैतन्य के रूप में स्वीकार करते हैं एवं शरीर के नाश के साथ ही उसका भी नाश मानते हैं । अतः वे पुनर्जन्म तथा परलोक की सत्ता में विश्वास नहीं रखते। उनकी दृष्टि में जीवन का एकमात्र ध्येय ऐहलोकिक सुख की प्राप्ति है । संसार की समस्त घटनाएँ एवं विचित्रता भूतों का ही खेल है ।
विकासवाद का सिद्धान्त भी भूतवाद अथवा भौतिकवाद का ही एक रूप है । डार्विन के इस सिद्धान्त का अभिप्राय है कि प्राणियों की शारीरिक तथा प्राणशक्ति का क्रमशः विकास होता है। जड़तत्व के विकास के साथ-साथ चैतन्य का भी विकास होता जाता है । चैतन्य जड़तत्त्व का ही एक अंग है, उससे मित्र स्वतन्त्र तत्त्व नहीं । चेतनाशक्ति का विकास जड़तत्त्व के विकास से सम्बद्ध है ।
पुरुषवाद - पुरुषवादियों की मान्यता है कि सृष्टि का रचयिता, पालनकर्ता एवं संहर्ता पुरुषविशेष अर्थात् ईश्वर है जिसकी ज्ञानादि शक्तियाँ प्रलयावस्था में भी विद्यमान रहती हैं । पुरुषवाद के दो रूप हैं : ब्रह्मवाद और ईश्वरवाद । ब्रह्मवादियों का मत है कि जैसे मकड़ी जाने के लिए,
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