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कर्म सिद्धान्त
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होती है वैसे ही भावों की उत्पत्ति किसी हेतुविशेष के अभाव में ही होती है । यदृच्छावाद, अकस्मात्वाद, अनिमित्तवाद, अकारणवाद, अहेतुवाद आदि एकार्थक हैं। इनमें कार्यकारणभाव अथवा हेतुहेतुमद्भाव का अभाव होता है । इस प्रकार की मान्यता का उल्लेख श्वेताश्वतर उपनिषद्,' महाभारत के शान्तिपर्व, न्यायसूत्र आदि में उपलब्ध होता है ।
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भूतवाद - भूतवादियों की मान्यता है कि पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु इन चार भूतों से ही सब पदार्थों की उत्पत्ति होती है। जड़ और चेतन समस्त भावों का आधार ये चार भूत हो हैं । इन भूतों के अतिरिक्त कोई अन्य चेतन अथवा अचेतन तत्त्व जगत् में विद्यमान नहीं है। जिसे अन्य दर्शन आत्मतत्त्व या चेतनतत्त्व कहते हैं उसे भूतवादी भौतिक ही मानता है । आत्मा - जीव- चैतन्य भूतों का ही एक कार्यंविशेष है जो अवस्थाविशेष की उपस्थिति में उत्पन्न होता है तथा उसकी अनुपस्थिति में नष्ट हो जाता है । जैसे पान, सुपारी, कत्था, चूना आदि वस्तुओं का सम्मिश्रणविशेष होने पर रक्त वर्ण की उत्पत्ति होती है उसी प्रकार भूतचतुष्टय के सम्मिश्रणविशेष से चैतन्य उत्पन्न होता है । इस दृष्टि से आत्मा भौतिक शरीर से भिन्न तत्त्व सिद्ध न होकर शरीररूप ही सिद्ध होता है । सूत्रकृतांग" में तज्जीवतच्छरीरवाद तथा पंचभूतवाद का जो वर्णन उपलब्ध होता है वह इसी मान्यता से सम्बन्धित है । तज्जीवतच्छरीरवाद का मन्तव्य है कि शरीर और जीव एक हैंअभिन्न हैं । इसे अनात्मवाद अथवा नास्तिकवाद भी कह सकते
३. ४. १.२२.
१. १.२. ४. सर्वदर्शनसंग्रह, अ. १.
५. श्रु. २, अ. १.
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२. ३३.२३.
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