________________
कमसिद्धान्त
४२३
देवविषयक विचारणा का भी विकास हआ। ब्राह्मण-काल में अनेक देवों के स्थान पर एक प्रजापति देवाधिदेव के रूप में प्रतिष्ठित हआ। प्रजापतिवादियों ने भी कर्म के साथ प्रजापति का समन्वय करने का प्रयत्न किया एवं कहा कि प्राणी अपने कर्म के अनुसार फल अवश्य प्राप्त करता है किन्तु यह फलप्राप्ति स्वतः न होकर देवाधिदेव ईश्वर के द्वारा होती है। ईश्वर जीवों को अपने-अपने कर्म के अनुसार ही फल प्रदान करता है. मनमाने ढंग से नहीं। वह न्यायाधीश की भांति आचरण करता है स्वेच्छाचारी की भांति नहीं। इस मान्यता के समर्थक दर्शनों में न्याय-वंशेषिक, सेश्वर सांख्य तथा वेदान्त का समावेश होता है।
वैदिक परम्परा में यज्ञादि अनुष्ठानों को कर्म कहा गया किन्तु उनकी उसी समय समाप्ति हो जाने से वे अस्थायी अनुष्ठान स्वयमेव फल कैसे दे सकते हैं ? अतः फल प्रदान करने के माध्यम के रूप में एक अदष्ट पदार्थ की कल्पना की गई जिमे मीमांमा दर्शन में 'अपूर्व' नाम दिया गया है। वैशे. षिक दर्शन में 'अदृष्ट' एक गुण माना गया है जिसके धर्म-अधर्मरूप दो भेद किए गए हैं। न्याय दर्शन में धर्म तथा अधर्म को 'संस्कार' कहा गया है। जैन और वौद्ध परम्पराओं में तो कर्म की अदृष्ट शक्ति का प्ररूपण प्रारंभ से ही हुआ है। इन दोनों परम्पराओं का मूल एक ही है। ये कर्मप्रधान श्रमणसंस्कृति की धाराएं हैं।
जैन आगम-साहित्य में कर्मवाद-जैन कर्मवाद पर अनेक आगमेतर स्वतन्त्र ग्रन्थ तो हैं ही, उपलब्ध आगम-साहित्य में भी इस विषय पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। यद्यपि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org