Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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जैन धर्म-दर्शन नियतिवाद में समानता होते हुए भी मुख्य अन्तर यह है कि दैववाद कर्म की सत्ता में विश्वास रखता है जबकि नियतिवाद कर्म का अस्तित्व नहीं मानता। दोनों की पराधीनता आत्यन्तिक एवं ऐकान्तिक होते हुए भी दैववाद की पराधीनता परतः अर्थात् प्राणी के कर्मों के कारण है जबकि नियतिवाद की पराधीनता बिना किसी कारण के अर्थात् स्वतः है । . पुरुषार्थवाद-पुरुषार्थवादियों का मत है कि इष्टानिष्ट की प्राप्ति बुद्धिपूर्वक प्रयत्न करने से ही होती है। भाग्य अथवा दैव नाम की कोई वस्तु नहीं है। पुरुषार्थ अर्थात् प्रयत्न ही सब-कुछ है । प्राणी अपनी बुद्धि एवं शक्ति के अनुसार जैसा प्रयत्न करता है वैसा ही फल पाता है। इसमें भाग्य की क्या बात है ? किसी भी कार्य की सफलताअसफलता प्राणी के पुरुषार्थ पर ही निर्भर होती है । पुरुषार्थवाद का आधार स्वतंत्रतावाद यानी इच्छास्वातन्त्र्य है। जैन सिद्धान्त का मन्तव्य :
जैन सिद्धान्त कर्म को प्राणियों की विचित्रता का प्रधान कारण मानता हुआ भी कालादि का सर्वथा अपलाप नहीं करता। आचार्य हरिभद्र का कथन है कि कालादि सब मिलकर ही गर्भादि कार्यों के कारण बनते हैं। चूंकि ये पृथक् पृथक् कहीं भी किसी कार्य को जन्म देते नहीं देखे जाते अतः यह मानना युक्तिसंगत है कि ये सब मिलकर ही समस्त कार्यों के कारण बनते हैं।' सिद्धसेन दिवाकर ने काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत कर्म और पुरुषार्थ इन पांच कारणों १. शास्त्रवार्तासमुच्चय, १९१-१९२.
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