Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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कर्मसिद्धान्त
४२६ • अंकूर से बीज की उत्पत्ति होती है और इस तरह बीजांकुरसन्तति अनादिकालीन सिद्ध होती है वैसे ही शरीर से कर्म तथा कर्म से शरीर का उद्भव होता है एवं शरीर और कर्म की परम्परा अनादिकालीन प्रमाणित होती है।' इस प्रकार कर्म, आत्मा और शरीर का सम्बन्ध अनादि है। आगम-साहित्य में कर्मवाद :
कर्मवाद की ऐतिहासिक समीक्षा के लिए यह आवश्यक है कि सर्वप्रथम वेदकालीन कर्मविषयक मान्यता का विचार किया जाय क्योंकि उपलब्ध समस्त साहित्य में वेद प्राचीनतम हैं। वैदिक काल के ऋषियों को कर्मवाद का ज्ञान था या नहीं, इस विषय में दो मत हैं। कुछ विद्वानों की धारणा है कि वेदों अर्थात् संहिता-ग्रन्थों में कर्मवाद का उल्लेख नहीं है। इसके विपरीत अन्य विद्वान् यह मानते हैं कि संहिता-ग्रन्थों के रचयिता कर्मवाद से परिचित थे।
वेदों में कर्मवाद-जो यह मानते हैं कि वेदों में कर्मवाद का विचार नहीं हुआ है उनका कथन है कि वैदिक काल के ऋषियों ने प्राणियों में विद्यमान वैविध्य अथवा वैचित्र्य का अनुभव अवश्य किया किन्तु उन्होंने इसका कारण अन्तरात्मा में हूँढ़ने के बजाय बाह्य तत्त्व में मानकर ही सन्तोष कर लिया। उनमें से किसी ने यह कल्पना की कि सृष्टि की उत्पत्ति का कारण एक भौतिक तत्त्व है। किसी ने अनेक भौतिक तत्त्वों को सृष्टि की उत्पत्ति का कारण माना। किसी ने प्रजापति को सृष्टि की उत्पत्ति के कारण के रूप में स्वीकार किया। वैदिक युग का समस्त तत्त्व
१. वही, १६३६.
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