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कर्म सिद्धान्त
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में से किसी एक को ही कार्यनिष्पत्ति का कारण मानने और शेष की अवहेलना करने को मिथ्या धारणा कहा है । कार्य निष्पत्ति में कालादि समस्त कारणों का समन्वय करना सम्यक् धारणा है ।' आचार्य समन्तभद्र ने देव और पुरुषार्थं का समन्वय करते हुए कहा है कि बुद्धिपूर्वक कार्य न करने पर भी इष्ट अथवा अनिष्ट वस्तु की प्राप्ति होना दैवाधीन है तथा बुद्धिपूर्वक कार्य करने पर इष्टानिष्ट की प्राप्ति होना पुरुषार्थ के अधीन है। कहीं देव प्रधान होता है तो कहीं पुरुषार्थ । अतः देव और पुरुषार्थ के विषय में अनेकान्त दृष्टि रखनी चाहिए। इन दोनों के समन्वय से ही अर्थसिद्धि होती है । जैन सिद्धान्त में चेतन और जड़ पदार्थों के नियन्त्रक एवं नियामक से रूप में पुरुषविशेष अर्थात् ईश्वर की सत्ता स्वीकार नहीं की गई है । विश्व अनादि एवं अनन्त है तथा प्राणी स्वकृत कर्मों के अनुसार इसमें जन्म-मरण का अनुभव किया करते हैं । यह चक्र बिना किसी पुरुषविशेष की सहायता के स्वभावतः स्वतः चलता रहता है । कर्म से ही प्राणी के जन्म, स्थिति, मरण आदि की सिद्धि हो जाती है। कर्म अपने नैसर्गिक स्वभाव के अनुसार स्वतः फल प्रदान करने में समर्थ होता है ।
कर्म का अस्तित्व :
प्राणियों में कर्मजन्य अनेक विचित्रताएं पाई जाती हैं । इन विचित्रताओं में सुख-दुःख का विशेष स्थान है। कर्म के अस्तित्व की सिद्धि के लिए जो हेतु प्रस्तुत किये जाते हैं उनमें
१. सन्मतितर्क प्रकरण, ३.५३.
२. आप्तमीमांसा, ६८- ९१.
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