Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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जैन धर्म-दर्शन
प्रकार कर्म का फल भोगने में परतन्त्र है उसी प्रकार कर्म का उपार्जन करने में भी परतन्त्र है । कर्मवाद की मान्यता के अनुसार प्राणी को अपने किये हुए कर्म का फल किसी-नकिसी रूप में अवश्य भोगना पड़ता है किन्तु नवीन कर्म का उपार्जन करने में वह किसी सीमा तक स्वतन्त्र है । कृतकर्म का भोग किये बिना मुक्ति नहीं हो सकती, यह सत्य है किन्तु यह अनिवार्य नहीं कि प्राणी अमुक समय में अमुक कर्म ही उपार्जित करे। आन्तरिक शक्ति एवं बाह्य परिस्थिति को दृष्टि में रखते हुए प्राणी नये कर्मों का उपार्जन रोक सकता है । इतना ही नहीं, वह अमुक सीमा तक पूर्वकृत कर्मों को शीघ्र या देर से भी भोग सकता है अथवा उनमें पारस्परिक परिवर्तन भी हो सकता है । इस प्रकार कर्मवाद में सीमित इच्छा -स्वातन्त्र्य का स्थान अवश्य है, यह मानना पड़ता है । इच्छा-स्वातन्त्र्य का अर्थ कोई यह करे कि 'जो चाहे सो करे' तो कर्मवाद में वैसे स्वातन्त्र्य का कोई स्थान नहीं है । प्राणी अपनी शक्ति एवं बाह्य परिस्थिति की अवहेलना करके कोई कार्य नहीं कर सकता । जिस प्रकार वह परिस्थितियों का दास है उसी प्रकार उसे अपने पराक्रम की सीमा का भी ध्यान रखना पड़ता है । इतना होते हुए भी वह कर्म करने में सर्वथा परतन्त्र नहीं अपितु किसी हद तक स्वतन्त्र है । कर्मवाद में यही इच्छा - स्वातन्त्र्य है । इस प्रकार कर्मवाद नियतिवाद और स्वतन्त्रतावाद के बीच का सिद्धान्त है - मध्यमवाद है ।
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कर्मवाद व अन्य वाद :
विश्व वैचित्र्य के कारण की खोज करते हुए कुछ विचारकों ने कर्मवाद के स्थान पर अन्य वादों की स्थापना की इन वादों में प्रमुख ये हैं : कालवाद, स्वभाववाद,
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