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कर्मसिद्धान्त
४१५ पुराने कर्मों का भोग एवं नये कर्मों का बन्ध अनादि काल से चला आ रहा है। प्राणी अपने कृतकों को भोगता जाता है तथा नवीन कर्मों का उपार्जन करता जाता है । इतना होते हुए भी यह नहीं कहा जा सकता कि प्राणी सर्वथा कर्माधीन है अर्थात् वह कर्मबन्ध को नहीं रोक सकता। यदि प्राणी का प्रत्येक कार्य कर्माधीन ही माना जाएगा तो वह अपनी आत्मशक्ति का स्वतन्त्रतापूर्वक उपयोग कैसे कर सकेगा? दूसरे शब्दों में, प्राणी को सर्वथा कर्माधीन मानने पर इच्छा-स्वातन्त्र्य का कोई मूल्य नहीं रह जाता। प्रत्येक क्रिया को कर्ममूलक मानने पर प्राणी का न अपने पर कोई अधिकार रह जाता है, न दूसरों पर। ऐसी दशा में उसकी समस्त क्रियाएँ स्वचालित यन्त्र की भांति स्वतः संचालित होती रहेंगी। प्राणी के पुराने कर्म स्वतः अपना फल देते रहेंगे एवं उसकी तत्कालीन निश्चित कर्माधीन परिस्थिति के अनुसार नये कर्म बंधते रहेंगे जो समयानुसार भविष्य में अपना फल प्रदान करते हए कर्मपरम्परा को स्वचालित यन्त्र की भाँति बराबर आगे बढ़ाते रहेंगे। परिणामतः कर्मवाद नियतिवाद अथवा अनिवार्यतावाद' में परिणत हो जाएगा तथा इच्छास्वातन्त्र्य अथवा स्वतन्त्रतावाद२ का प्राणी के जीवन में कोई स्थान न रहेगा।
कर्मवाद को नियतिवाद अथवा अनिवार्यतावाद नहीं कह सकते। कर्मवाद का यह तात्पर्य नहीं कि इच्छा-स्वातन्त्र्य का कोई मूल्य नहीं। कर्मवाद यह नहीं मानता कि प्राणी जिस
1. Determinism or Necessitarianism. 2. Freedom of Will or Libertarianism.
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