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कर्मसिद्धान्त
भारतीय तत्त्वचिन्तन में कर्म सिद्धान्त का अति महत्त्वपूर्ण स्थान है । चार्वाकों के अतिरिक्त भारत के सभी श्रेणियों के विचारक कर्मसिद्धान्त के प्रभाव से प्रभावित रहे हैं । भारतीय दर्शन, धर्म, साहित्य, कला, विज्ञान आदि पर कर्मसिद्धान्त का प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। सुख-दुःख एवं सांसारिक विध्य का कारण ढूँढ़ते हुए भारतीय विचारकों ने कर्म के अद्भुत सिद्धान्त का अन्वेषण किया है । भारत के जनसाधारण की यह सामान्य धारणा रही है कि प्राणियों को प्राप्त होने वाला सुख अथवा दुःख स्वकृत कर्मफल के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । जीव अनादिकाल से कर्मवश हो विविध भवों में भ्रमण कर रहा है । जन्म एवं मृत्यु की जड़ कर्म है । जन्म और मरण ही सबसे बड़ा दुःख है । जीव अपने शुभ और अशुभ कर्मों के साथ परभव में जाता है जो जैसा करता है उसे वैसा ही फल भोगना पड़ता है । 'जैसा बोओगे वैसा काटोगे' का तात्पर्यार्थ यही है । एक प्राणी दूसरे प्राणी के कर्मफल का अधिकारी नहीं होता । प्रत्येक प्राणी का कर्म स्वसम्बद्ध होता है, परसम्बद्ध नहीं । कर्मसिद्धान्त की स्थापना में यद्यपि भारत की सभी दार्शनिक एवं नैतिक शाखाओं ने अपना योगदान दिया है फिर भी जैन परम्परा में इसका जो सुविकसित रूप दृष्टिगोचर होता . है वह अन्यत्र अनुपलब्ध है। जैन आचार्यों ने जिस ढंग से
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