Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
View full book text
________________
सापेक्षवाद
४११ प्रयोग करना ठीक नहीं । जिस समय वह अपनी शक्ति का प्रदर्शन कर रहा हो उसी समय उसे शक कहना चाहिए । आगे और पीछे शक का प्रयोग करना इस नय की दृष्टि में ठीक नहीं । ध्वंस करते समय ही उसे पुरन्दर कहना चाहिए, पहले या बाद में नहीं । इसी प्रकार नृपति, भूपति, राजा आदि शब्दों के प्रयोग में भी समझना चाहिए ।
नयों का पारस्परिक सम्बन्ध :
उत्तर-उत्तर नय का विषय पूर्व-पूर्व नय से कम होता जाता है । नैगमनय का विषय मबसे अधिक है क्योंकि वह सामान्य और विशेष -भ ेद और अभ ेद दोनों का ग्रहण करता है । कभी सामान्य को मुख्यता देता है और विशेष का गौणरूप से ग्रहण करता है तो कभी विशेष का मुख्यरूप से ग्रहण करता है और सामान्य का गौणरूप से अवलम्बन करता है । संग्रह का विषय नैगम से कम हो जाता है । वह केवल सामान्य अथवा अभेद का ग्रहण करता है । व्यवहार का विषय संग्रह से भी कम है क्योंकि वह संग्रह द्वारा गृहीत विषय का कुछ विशेषताओं के आधार पर पृथक्करण करता है । ऋजुसूत्र का विषय व्यवहार से कम है क्योंकि व्यवहार कालिक विषय की सत्ता मानता है, जब कि ऋजुसूत्र वर्तमान पदार्थ तक ही सीमित रहता है, अतः यहीं से पर्यायार्थिक नय का प्रारम्भ माना जाता है । शब्द का विषय इससे भी कम है क्योंकि वह काल, कारक, लिंग, संख्या आदि के भ ेद मानता है । समभिरूढ का विषय शब्द से वह पर्याय - व्युत्पत्तिभेद से अर्थभेद मानता है, पर्यायवाची शब्दों में किसी तरह का भेद अङ्गीकार नहीं करता । एवम्भूत का विषय समभिरूढ से भी कम है क्योंकि
भेद से अर्थ में
कम है क्योंकि
जब कि शब्द
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org