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जैन धर्म-दर्शन
कि वस्तु न तो सर्वथा सत् या विध्यात्मक हो सकती है, न सर्वथा असत्या निषेधात्मक । विधि और निषेध दोनों रूपों में वस्तु की पूर्णता रही हुई है। न तो विधि निषेध से बलवान् है और न निषेध विधि से शक्तिशाली है । दोनों समान रूप से वस्तु का यथार्थता के प्रति कारण हैं । वस्तु का पूर्ण रूप देखने के लिए दोनों पक्षों की सत्ता मानना आवश्यक है । इसलिए पहले के दो भङ्ग मुख्य हैं। हाँ, यदि कोई ऐसा कथन हो जिसमें विधि और निषेध का समान रूप से प्रतिनिधित्व हो, दोनों में से किसी का भी निषेध न हो, तो उसको मुख्य मानने में जैन दर्शन को कोई आपत्ति नहीं । वस्तु का विश्लेषण करने पर प्रथम दो भङ्ग अवश्य स्वीकार करने पड़ते हैं । विवक्षाभेद से २३ भङ्गों की रचना भगवतीसूत्र में पहले देख ही चुके हैं ।
१०. स्याद्वाद को मानने वाले केवलज्ञान की सत्ता में विश्वास नहीं रख सकते, क्योंकि केवलज्ञान एकान्त रूप से पूर्ण होता है । उसकी उत्पत्ति के लिए बाद में किसी की अपेक्षा नहीं रहती ।
स्याद्वाद और केवलज्ञान में तत्त्वज्ञान की दृष्टि से कोई भेद नहीं है । केवली वस्तु को जिस रूप से जानेगा, स्याद्वादी भी उसे उसी रूप से जानेगा । अन्तर यह है कि केवली जिस तत्त्व को साक्षात् जानेगा - प्रत्यक्ष ज्ञान से जानेगा, स्याद्वादी छद्मस्थ उसे परोक्ष रूप से जानेगा - श्रुतज्ञान के आधार से जानेगा । केवलज्ञान पूर्ण होता है, इसका अर्थ यही है कि वह साक्षात् आत्मा से होता है और उस ज्ञान में किसी प्रकार की बाधा की सम्भावना नहीं है । पूर्णता का यह अर्थ नहीं कि वह एकान्तवादी हो गया । तत्त्व को तो वह सापेक्ष - अनेकान्तात्मक रूप में ही देखेगा। इतना ही नहीं, उसमें उत्पाद, व्यय और धौव्य
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