Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
View full book text
________________
३६६
जैन धर्म-दर्शन
अपेक्षा से नारक जीव शाश्वत है और व्युच्छित्तिनय की अपेक्षा से वह अशाश्वत है । " अव्युच्छित्तिनय द्रव्यार्थिक दृष्टि का ही नाम है । द्रव्यदृष्टि से देखने पर प्रत्येक पदार्थ नित्य मालूम होता है । इसीलिए द्रव्यार्थिक दृष्टि अभेदगामी है - सामान्यमूलक है - अन्वयपूर्वक है । व्युच्छित्तिनय का दूसरा नाम है पर्यायार्थिक दृष्टि । पर्यायदृष्टि से देखने पर वस्तु अनित्य मालूम होती है- अशाश्वत प्रतीत होती है। इसीलिए पर्यायार्थिक दृष्टि भेदगामी है- विशेषमूलक है। हम किसी भी दृष्टि को लें, वह या तो भेदमूलक होगी या अभेदमूलक, या तो विशेषमूलक होगी या सामान्यमूलक । उक्त दो प्रकारों को छोड़कर वह अन्यत्र कहीं नहीं जा सकती। इसलिए मूलतः द्रव्याथिक और पर्यायार्थिक ये दो ही दृष्टियाँ हैं और इन दो दृष्टियों का प्रतिनिधित्व करने वाले दो नय हैं । अन्य दृष्टियाँ इन्हीं के भेदप्रभेद - शाखा प्रशाखाओं के रूप में हैं ।
द्रव्याथिक एवं प्रदेश।र्थिक दृष्टि :
द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दृष्टि की भाँति द्रव्याथिक और प्रदेशायिक दृष्टि से भी पदार्थ का कथन हो सकता है । द्रव्यार्थिक दृष्टि एकता का प्रतिपादन करती है, यह हम देख चुके हैं । प्रदेशार्थिक दृष्टि अनेकता को अपना विषय बनाती है । पर्याय और प्रदेश में यह अन्तर है कि पर्याय द्रव्य की देश और कालकृत नाना अवस्थाएं हैं। एक ही द्रव्य देश और काल के भेद से विविध रूपों में परिवर्तित होता रहता है। इसके विविध रूप ही विविध पर्याय हैं । द्रव्य के अवयव प्रदेश कहे जाते हैं । एक द्रव्य के अनेक अंश हो सकते हैं। एक-एक अंश
१. ७.२.२७६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org