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जैन धर्म-दर्शन
से सम्बद्ध हैं। शब्दों के भेद से अर्थ में भेद करना इनका कार्य है। शब्दनय एक ही वस्तु में काल, कारक, लिंग आदि के भेद से भेद मानता है। लिंग तीन प्रकार का होता है-पुल्लिग, स्त्रीलिग और नपुंसकलिंग। इन तीनों लिंगों से भिन्न-भिन्न अर्थ का बोध होता है। शब्दनय स्त्रीलिंग से वाच्य अर्थ का बोध पुल्लिग से नहीं मानता। पुल्लिग से वाच्य अर्थ का बोध नपुंसकलिग से नहीं मानता। इसी प्रकार अन्य लिंगों की योजना भी कर लेनी चाहिए । स्त्रीलिंग में पुल्लिंग का अभिधान किया जाता है। जैसे तारका स्त्रीलिंग है और स्वाति पुल्लिग है। पुल्लिग से स्त्रीलिंग के अभिधान का उदाहरण है अवगम और विद्या ! स्त्रीलिंग में नपुंसकलिंग का प्रयोग होता है-जैसे वीणा के लिए आतोद्य का प्रयोग। नपुंसकलिंग में स्त्रीलिंग का अभिधान किया जाता है-जैसे आयुध के लिए शक्ति का प्रयोग। पुल्लिग में नपुंसकलिंग का प्रयोग किया जाता है-जैसे पट के लिए वस्त्र का प्रयोग । नपुंसकलिंग में पुल्लिग का अभिधान होता है-जैसे द्रव्य के लिए परशु का प्रयोग। शब्दनय इन सबमें भेद मानता है। संख्या तीन प्रकार की है-एकत्व, द्वित्व और बहुत्व । एकत्व में द्वित्व का प्रयोग होता है-जैसे नक्षत्र और पुनर्वसु । एकत्व में बहुत्व का प्रयोग किया जाता है-जैसे नक्षत्र और शतभिषक् । द्वित्व में एकत्व का प्रयोग होता है-जैसे जिनदत्त, देवदत्त और मनुष्य । द्वित्व में बहुत्व का प्रयोग होता है-जैसे पुनर्वसु और पंचतारका। बहुत्व में एकत्व का प्रयोग होता है-जैसे आम और वन । बहत्व में द्वित्व का अभिधान किया जाता है-जैसे देवमनुष्य और उभयराशि । शब्द नय इन प्रयोगों में भेद का व्यवहार करता है। काल के भेद से अर्थभ द का उदाहरण है-काशी नगरी थी और काशी नगरी है। इन दोनों वाक्यों के अर्थ
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