________________
३६८
जैन धर्म-दर्शन
क्योंकि उसके अनेक प्रदेश हैं । इसी प्रकार धर्मास्तिकाय द्रव्यदृष्टि से एक है किन्तु पदेदृष्टि से अनेक है । अन्य द्रव्यों के विषय में भी यही बात समझनी चाहिए। जब किसी वस्तु का द्रव्यदृष्टि से विचार किया जाता है तब द्रव्यार्थिक नय का उपयोग किया जाता है । प्रदेशदृष्टि से विचार करते समय प्रदेशार्थिक नय काम में लाया जाता है ।
व्यावहारिक तथा नैचयिक दृष्टि :
व्यवहार और निश्चय का झगड़ा बहुत पुराना है । जो वस्तु जैसी प्रतिभासित होती है उसी रूप में वह सत्य है या किसी अन्य रूप में ? कुछ दार्शनिक वस्तु के दो रूप मानते हैं - प्रातिभासिक और पारमार्थिक । चावकि आदि दार्शनिक प्रतिभास और परमार्थ में किसी प्रकार का भेद नहीं करते। उनकी दृष्टि में इन्द्रियगम्य तत्त्व पारमार्थिक है । महावीर ने वस्तु के दोनों रूपों का समर्थन किया और अपनी-अपनी दृष्टि से दोनों को यथार्थ बताया । इन्द्रियगम्य वस्तु का स्थूल रूप व्यवहार की दृष्टि से यथार्थ है । इस स्थूल रूप के अतिरिक्त वस्तु का सूक्ष्म रूप भी होता है जो इन्द्रियों का विषय नहीं हो सकता | वह केवल श्रुत या आत्मत्यक्ष का विषय होता है । यही नैश्चयिक दृष्टि है । व्यावहारिक दृष्टि और नैश्चयिक दृष्टि में यही अन्तर है कि व्यावहारिक दृष्टि इन्द्रियाश्रित है, अतः स्थूल है, जब कि नैश्चयिक दृष्टि इन्द्रियातीत है, अतः सूक्ष्म है । 'एक दृष्टि से पदार्थ के स्थूल रूप का ज्ञान होता है और दूसरी से पदार्थ के सूक्ष्म रूप का दोनों दृष्टियाँ सम्यक् हैं । दोनों यथार्थता का ग्रहण करती हैं ।
1
महावीर और गौतम के बीच एक संवाद है। गौतम 'महावीर से पूछते हैं- भगवन् ! पतले गुड ( फाणित ) में कितने
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org