________________
३६४
जैन धर्म-दर्शन
भेदाभेदवाद, सदसद्वाद, नित्यानित्यवाद, निर्वचनीयानिर्वचनीयवाद, एकानेकवाद, सदसत्कार्यवाद आदि जितने भी दार्शनिक वाद हैं, सबका आधार स्याद्वाद है । जैन दर्शन के आचार्यों ने इस सिद्धान्त की स्थापना का युक्तिसंगत प्रयत्न किया । आगमों में इसका काफी विकास दिखाई देता है । जैन दर्शन में स्याद्वाद का इतना अधिक महत्त्व है कि आज स्याद्वाद जैन दर्शन का पर्याय बन गया है । जैन दर्शन का अर्थ स्याद्वाद के रूप में लिया जाता है । जहाँ जैन दर्शन का नाम आता है, अन्य सिद्धान्त एक ओर रह जाते हैं और स्याद्वाद या अनेकान्तवाद याद आ जाता है । वास्तव में स्याद्वाद जैन दर्शन का प्राण है । जैन आचार्यों के सारे दार्शनिक चिन्तन का आधार स्याद्वाद है ।
नयवाब:
श्रुत के दो उपयोग होते हैं-सकलादेश और विकलादेश सकलादेश को प्रमाण या स्याद्वाद कहते हैं । विकलादेश को नय कहते हैं । धर्मान्तर की अविवक्षा से एक धर्म का कथन विकलादेश कहलाता है । स्याद्वाद या सकलादेश द्वारा सम्पूर्ण वस्तु का कथन होता है। नय अर्थात् विकलादेश द्वारा वस्तु के एक देश का कथन होता है । सकलादेश में वस्तु के समस्त धर्मों की विवक्षा होती है । विकलादेश में एक धर्म के अतिरिक्त अन्य धर्मों की विवक्षा नहीं होती । विकलादेश इसीलिए सम्यक् माना जाता है कि वह अपने विवक्षित धर्म के अतिरिक्त जितने भी धर्म हैं उनका प्रतिषेध नहीं करता अपितु उन धर्मों के प्रति उसका उपेक्षाभाव होता है । शेष धर्मों से उसका कोई प्रयोजन नहीं होता । प्रयोजन के अभाव में वह उन धर्मों का न तो विधान करता है और न निषेध | सकलादेश और विकलादेश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org