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जैन धर्म-दर्शन
एकताश्रित है। दोनों एक-दूसरे की अपेक्षा रखती हैं। एकता के बिना अनेकता का काम नहीं चल सकता और अनेकता के बिना एकता कुछ नहीं कर सकती । तत्त्व एकता और अनेकता दोनों का मिला-जुला रूप है । उसे न तो एकान्तरूप से एक कह सकते हैं और न एकान्ततः अनेक। वह एक भी है और अनेक भी। इसलिए एकता को वास्तविक मानते हुए भी स्याद्वाद को एकान्तवाद या निरपेक्षवाद का कोई भय नहीं है ।
८. यदि प्रत्येक वस्तु कथंचित् यथार्थ है और कथंचित् अयथार्थं तो स्याद्वाद स्वयं भी कथंचित् सत्य होगा और कथंचित् मिथ्या । ऐसी स्थिति में स्याद्वाद ही से तत्त्व का यथार्थ ज्ञान हो सकता है, यह कैसे कहा जा सकता है ?
स्याद्वाद तत्त्व का विश्लेषण करने की एक दृष्टि है | अनेकान्तात्मक तत्त्व को अनेकान्तात्मक दृष्टि से देखने का नाम ही स्याद्वाद है । जो वस्तु जिस रूप में यथार्थ है उसे उस रूप में यथार्थ मानना और तदितर रूप में अयथार्थ मानता स्याद्वाद है । स्याद्वाद स्वयं भी यदि किसी रूप में अयथार्थ या मिथ्या है तो वैसा मानने में कोई हर्ज नहीं । यदि हम एकान्तवादी दृष्टिकोण लें और स्याद्वाद की ओर देखें तो वह भी मिथ्या प्रतीत होगा । अनेकान्न दृष्टि से देखने पर स्याद्वाद सत्य प्रतीत होगा । दोनों दृष्टियों को सामने रखते हुए हम यह कह सकते हैं कि स्याद्राद कथंचित् मिथ्या है अर्थात् एकान्तदृष्टि की अपेक्षा से मिथ्या है और कथंचित् सत्य है अर्थात् अनेकान्तदृष्टि hi अपेक्षा से सत्य है । जिसका जिस दृष्टि से जैसा प्रतिपादन हो सकता है उस दृष्टि से वैसा प्रतिपादन करने के लिए स्याद्वाद तैयार है। इसमें उसका कुछ नहीं बिगड़ता । जब हम यह कहते हैं कि प्रत्येक पदार्थ स्वरूप से सत् है और पररूप से असत् है
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