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जैन धर्म-दर्शन
सकता । दोनों धर्म स्वतन्त्र रूप से वस्तु में रहते हैं और उनकी प्रतीति उभयरूप से होती है। ऐसी दशा में व्यतिकर दोष की कोई सम्भावना नहीं । जब भेद की प्रतीति स्वतन्त्र है और अभेद की स्वतन्त्र तव भेद और अभेद के परिवर्तन की आवश्यकता ही क्या है ? ऐसी स्थिति में व्यतिकर दोष का कोई अर्थ नहीं । भेद का भेदरूप से और अभेद का अभेदरूप से ग्रहण करना - यही स्याद्वाद का अर्थ है । अतः यहाँ व्यतिकर जैसी कोई चीज ही नहीं है ।
६. तत्त्व भेदाभेदात्मक होने से किसी निश्चित धर्म का निर्णय नहीं होने पायेगा । जहाँ किसी निश्चित धर्म का निर्णय नहीं होगा वहाँ संशय उत्पन्न हो जायेगा, और जहाँ संशय होगा वहाँ तत्त्व का ज्ञान ही नहीं होगा ।
यह दोष भी व्यर्थ है । भेदाभेदात्मक तत्त्व का भेदाभेदात्मक ज्ञान होना संशय नहीं है । संशय तो वहाँ होता है जहाँ यह निर्णय न हो कि तत्त्व भेदात्मक है या अभेदात्मक है या भेद और अभेद उभयात्मक है ? जब यह निर्णय हो रहा है कि तत्त्व भेद और अभेद उभयात्मक है तब यह कैसे कहा जा सकता है कि किसी निश्चित धर्म का निर्णय नहीं होगा ? जहाँ निश्चित धर्म का निर्णय है वहाँ संशय पैदा नहीं हो सकता । जहाँ संशय नहीं वहाँ तत्त्वज्ञान होने में कोई बाधा नहीं । इसलिए संशयाश्रित जितने भी दोष हैं, स्याद्वाद के लिए सब निरर्थक हैं | ये दोष स्याद्वाद पर नहीं लगाए जा सकते ।
७. स्याद्वाद एकान्तवाद के बिना नहीं रह सकता । स्याद्वाद कहता है कि प्रत्येक वस्तु या धर्म सापेक्ष है। सापेक्ष धर्मों के मूल में जब तक कोई ऐसा तत्त्व न हो जो सब धर्मों को एक सूत्र में बाँध सके तब तक वे धर्म टिक ही नहीं सकते। उनको
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