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सापेक्षवाद
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सम्बन्ध का प्रश्न ही व्यर्थ है तब अनवस्था दोष की व्यर्थता स्वतः सिद्ध है, यह कहने की आवश्यकता नहीं ।
४. जहाँ भेद है वहीं अभेद है और जहाँ अभेद है वहीं भेद है । भेद और अभेद का भिन्न-भिन्न आश्रय न होने से दोनों एकरूप हो जाएंगे । भेद और अभेद की एकरूपता का अर्थ होगा संकर दोष ।
स्याद्वाद को संकर दोष का सामना तब करना पड़ता जब भेद अभेद हो जाता । आश्रय एक होने का अर्थ यह नहीं होता कि आश्रित भी एक हो जायँ । एक ही आश्रय में अनेक आश्रित रह सकते हैं। एक ही ज्ञान में चित्रवर्ण का प्रतिभास होता है' फिर भी सब वर्ण एक नहीं हो जाते । एक ही वस्तु में सामान्य और विशेष दोनों रहते हैं फिर भी सामान्य और विशेष एक नहीं हो जाते । भेद और अभेद का आश्रय एक ही पदार्थ है, किन्तु वे दोनों एक नहीं हैं । यदि एक होते तो एक ही की प्रतीति होती, दोनों की नहीं । जब दोनों की भिन्न-भिन्न रूप में प्रतीति होती है तब उन्हें एकरूा कैसे कहा जा सकता है ?
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५. जहाँ भेद है वहाँ अभेद भी है और जहाँ अभेद है वहाँ भेद भी है । दूसरे शब्दों में, जो भिन्न है वह अभिन्न भी है और जो अभिन्न है वह भिन्न भी है। भेद और अभेद दोनों परस्पर बदले जा सकते हैं । इसका परिणाम यह होगा कि स्याद्वाद को व्यतिकर दोष का सामना करना पड़ेगा ।
जिस प्रकार संकर दोष स्याद्वाद पर नहीं लगाया जा सकता उसी प्रकार व्यतिकर दोष भी स्याद्वाद का कुछ नहीं बिगाड़
१. बौद्ध.
२. तैयायिक - वैशेषिक.
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