Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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सापेक्षवाद
३८५ और अरक्त हो सकता है, एक ही वस्त्र पिहित और अपिहित हो सकता है, ऐसी दशा में एक ही पदार्थ में भेद और अभेद, नित्यता
और अनित्यता, एकता और अनेकता की सत्ता क्यों विरोधी है, यह समझ में नहीं आता। इसलिए स्याद्वाद पर यह आरोप लगाना कि वह परस्पर विरोधी धर्मो को एकत्र आश्रय देता है, मिथ्या है। स्याद्वाद प्रतीति को यथार्थ मानकर ही आगे बढ़ता है। प्रतीति में जैसा प्रतिभास होता है और जिसका दूसरी प्रतीति से खण्डन नहीं होता वही निर्णय यथार्थ है-अव्यभिचारी है-अविरोधी है।
२. यदि वस्तु भेद और अभेद उभयात्मक है तो भेद का आश्रय भिन्न होगा और अभेद का आश्रय उससे भिन्न । ऐसी दशा में वस्तु की एकरूपता समाप्त हो जायगी। एक ही वस्तु द्विरूप हो जायगी।
यह दोष भी निराधार है। भेद और अभेद का भिन्न-भिन्न आश्रय मानने की कोई आवश्यकता नहीं । जो वस्तु भेदात्मक है वही वस्तु अभेदात्मक है। उसका जो परिवर्तन धर्म है वह भेद की प्रतीति का कारण है। उसका जो ध्रौव्य धर्म है वह अभेद की प्रतीति का कारण है। ये दोनों धर्म अखण्ड वस्तु के धर्म हैं । ऐसा कहना ठीक नहीं कि वस्तु का एक अंश भेद या परिवर्तन धर्मवाला है और दूसरा अंश अभेद या ध्रौव्य धर्मयुक्त है। वस्तु के टुकड़े-टुकड़े करके अनेक धर्मों की सत्ता स्वीकार करना स्याहादी को इप्ट नहीं। जब हम वस्त्र को संकोच और विकासशील कहते हैं तब हमारा तात्पर्य एक ही वस्त्र से होता है। वही वस्त्र संकोचशाली होता है और वही विकासशाली। यह नहीं कि उसका एक हिस्सा संकोच धर्मवाला है और दूसरा हिस्सा विकास धर्मवाला है । वस्तु के दो
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